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अखिलेश की केमिस्ट्री ने कुनबे का अंकगणित गड़बड़ाया

अखिलेश की केमिस्ट्री ने कुनबे का अंकगणित गड़बड़ाया

लखनऊ 24 मई (वार्ता) समाजवादी पार्टी (सपा) की कमान संभालने के बाद राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिये नये नवेले दांव पेंच आजमाने वाले अखिलेश यादव का गठबंधन का एक और प्रयोग लोकसभा चुनाव परिणामों में न सिर्फ दम तोड़ गया बल्कि इसने यादव परिवार के राजनीतिक भविष्य पर भी सवालिया निशान लगा दिया।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को केन्द्र की सत्ता में आने से रोकने के लिये अखिलेश ने पिता मुलायम सिंह यादव की असहमति के बावजूद अपनी राजनीतिक प्रतिद्धंदी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती से दोस्ती का हाथ मिलाया लेकिन सूबे की जनता ने गठबंधन को सिरे से नकार दिया। परिणामस्वरूप सपा को जहां इसका नुकसान अपने परिवार के तीन अहम सदस्यों की सीटें देकर उठाना पड़ा वहीं बसपा ने गठबंधन का फायदा उठाते हुये इस चुनाव में दस सीटें झटकी।

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने राज्य की 80 सीटों में से 62 में जीत हासिल की जबकि उसकी सहयोगी अपना दल (सोनेलाल) ने अपने हिस्से की दो सीटों पर कब्जा किया। चुनाव से पहले गठबंधन को 40 से 50 सीटें मिलने का अनुमान लगाया जा रहा था लेकिन गुरूवार को चली मोदी की लोकप्रियता की आंधी में गठबंधन को मात्र 15 सीटों पर संतोष करना पडा। इनमें सपा के हिस्से में पांच सीटें आयी जो वर्ष 2014 में मिली संख्या के बराबर थी। गठबंधन के तीसरे दल रालोद का तो इस चुनाव में खाता भी नहीं खुल सका।

वर्ष 2014 में मोदी लहर के बावजूद यादव परिवार के सदस्य अपनी सीटेे बचाने में सफल रहे थे लेकिन इस बार मोदी की सुनामी के बीच चुनाव नतीजो में यादव परिवार के तीन महत्वपूर्ण किले धराशायी पाये गये। सपा अध्यक्ष की पत्नी एवं सांसद डिंपल यादव को कन्नौज सीट से हाथ धोना पड़ा वहीं फिरोजाबाद में अक्षय यादव और बदायूं में धर्मेन्द्र यादव भी भाजपा उम्मीदवारों से हार गये। सपा संस्थापक मैनपुरी और खुद पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव आजमगढ में चुनाव जीतने में सफल रहे।

दलित अल्पसंख्यक गठजोड़ के समीकरण पर आधारित गठबंधन में बसपा को दस सीटों के रूप में संजीवनी मिली। अखिलेश यादव के जीत के अंतर को छोड़ दिया जाए तो मैनपुरी से मुलायम की जीत भी बड़ी नहीं रही। मुलायम की जीत का अंतर सिर्फ 94389 वोटों का रहा जो 2014 में मिली जीत के मुकाबले नगण्य था।

चुनाव परिणामों ने यह साफ कर दिया कि श्री अखिलेश यादव के कमान संभालने के बाद गठबंधन का तीसरा प्रयोग भी सफल नहीं हुआ। इससे पहले सपा की कमान के लिये उन्होने अपने चाचा शिवपाल सिंह यादव से दूरी बनायी जिसके चलते न सिर्फ पारिवारिक रिश्तों में दरार बढी बल्कि एक नये दल का सूत्रपात भी हुआ जो फिरोजाबाद में पार्टी की हार के तौर पर सामने आया। यादव लैंड में चाचा शिवपाल यादव और भतीजे अक्षय के बीच लडाई का फायदा उठाते हुये भाजपा के डा चंद्रसेन जादौन ने बाजी मार ली।

इससे पहले वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश ने सूबे की राजनीति के हासियें पर टिकी कांग्रेस से हाथ मिलाकर अपने पांव में कुल्हाडी मारी थी। राजनीतिक विश्लेषक बसपा के साथ गठबंधन को भी राजनीतिक अदूरदशिता का परिचायक मानते है क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में बुरी तरह असफल बसपा के पास इस चुनाव में खोने को कुछ नहीं था और इस नाते उसे दस सीटों का फायदा हुआ जबकि सपा को इसकी कीमत परिवार के बिखराव और अपनी परम्परागत सीटें अदा करके चुकानी पडी।

सबसे बड़ा नुकसान अखिलेश को इस बात का हो सकता है कि वह जिस मुस्लिम समुदाय की आवाज बनने की बात करते रहे हैं, अब उसकी अगुवाई मायावती करती नजर आ सकती हैं. इसके पीछे की वजह ये है कि गठबंधन ने 10 मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए थे, जिसमें से 6 जीतकर सांसद पहुंचे। तीन बसपा के और तीन सपा के मुस्लिम उम्मीदवार जीतने में कामयाब रहे।

यादव परिवार की हुयी नुकसान की भरपाई रामपुर में सपा के कद्दावर नेता मोहम्मद आजम खां ने भाजपा की जयाप्रदा को हराकर पूरी की वहीं मुरादाबाद से डॉ एचटी हसन और संभल से डॉ शफीकुर्रहमान बर्क ने जीत हासिल कर पूरा किया।

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