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लोकरुचि


कान्हानगरी में अदभुद कंस मेला कल से

कान्हानगरी में अदभुद कंस मेला कल से

मथुरा, 17 नवम्बर (वार्ता) तीन लोक से न्यारी मथुरा नगरी में जहां रामलीला में रावण के पुतले का दहन होता है वहीं कंस मेले में कंस के पुतले का दहन नही किया जाता। मथुरा में इस बार 18 नवम्बर को कंस मेला लगेगा।

ब्रज की विभूति और मथुरा की रामलीला को नया आयाम देनेवाले शंकरलाल चतुर्वेदी ने शनिवार को बताया कि चतुर्वेद समाज की विशेषता है कि वह दुश्मन की भी मोक्ष की कामना करता है। उन्होंने कंस को मरवाया भी था तथा खुद भी मारने में सहयोग किया था और बाद में पुतले की पिटाई के बाद उसे यमुना में प्रवाहित कर दिया था।

मेलेे के आयोजन का कारण स्पष्ट करते हुए उन्होंने बताया कि कंस का अत्याचार एवं अनाचार बढ़ जाने के कारण उसेे मारने के लिए ही भगवान श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ।

जब जब होयं धर्म की हानी। बाढ़ अधम असुर अभिमानी।

तब तब धर प्रभु मनुज शरीरा।हरहिं सदा सज्जन बहु पीरा।।

भगवान श्रीकृष्ण ने यहां पर तमाम बाल लीलाएं कीं और अंत में कंस का वध किया।

कंस को मारने में श्रीकृष्ण की मदद करने के यादव और चर्तुवेदी समाज के लोगो के दावों के बारे में श्री चर्तुवेदी ने कहा कि हकीकत यह है कि दोनो वर्ग के लोगों ने श्रीकृष्ण की मदद की थी। यादव लोग श्रीकृष्ण के साथ गोकुल से आए़ थे जबकि स्थानीय होने के कारण चर्तुवेदी समाज ने उसमें सहयोग किया था। बिना स्थानीय सहयोग के कंस का मारना संभव नही था। चर्तुवेदी स्थानीय होने के साथ साथ भी कंस के अत्याचार से दुःखी थे, इसलिए उन्होंने कंस को मारने में श्रीकृष्ण का सहयोग किया था। छ़ज़्जू नामक चौबे ने अपने अन्य साथियों के साथ के साथ कंस को मारने के लिए श्रीकृष्ण का ने केवल सहयोग किया था बल्कि उन्हें कंस को मारने की तरकीब भी बताई थीः-

छज्जू लाए ख़ाट के पाये,

मार मार लट़़ठन झूर कर आए।

वाई कंस की मूछन लाए----।

माथुर चतुर्वेद परिषद के संरक्षक महेश पाठक का कहना है कि कंस के मेले को केवल चतुर्वेद समाज के कार्यक्रम के रूप में नही देखा जाना चाहिए । जिस प्रकार रामलीला के माध्यम से नई पीढ़ी में संस्कार डालने का प्रयास होता है उसी प्रकार देश विदेश में रहनेवाले चतुर्वेदी इस अवसर पर मथुरा आते हैं और समाज के प्रति अपने दायित्व को पूरा करने का संदेश नई पीढ़ी में ढ़ालने की कोशिश करते है़ं।

श्री चतुर्वेदी ने यह भी बताया कि गर्ग संहिता के गोलोक खण्ड के नवे अध्याय के अनुसार देवकी के विवाह के समय इस आकाशवाणी ने कंस को विचलित कर दिया कि उसका आठवां भांजा ही उसका काल बनेगा। इस आठवें भांजे को मारने के लिए कंस ने कई राक्षसों को अलग अलग वेश में भेजा लेकिन जब उसके सारे प्रयास असफल हो गए तो उसका अंत निश्चय था।

उन्होंने बताया कि श्रीकृष्ण बलराम जब मल्ल क्रीड़ा महोत्सव देखने आए तो उन्होंने धोबी बध, कुबलिया पीड़ बध और अंत में कंस द्वारा विशेष रूप से तैयार किए गए मल्ल चाणूर और मुस्टिक का वध किया था। धानुष महोत्सव में भाग लेने आए कृष्ण एवं बलराम को चतुर्वेद बालक मुख्य आयोजन स्थल पर जब ले जाने लगे तो उन्हें रास्ते में कंस का धोबी मिलता है। बातों ही बातों में वे उसे मार देते हैं और उसके कपड़े लेकर दर्जी के पास जाते हैं तथा उन्हें कटवाकर अपने नाप का बनवा लेते हैं। उनका कहना था कि लाठी इस मेले का आवश्यक अंग है जिस पर लगातार मेंहदी और तेल पिलाकर कई महीने में उसे तैयार किया जाता है। कंस मेले के दिन चतुर्वेद समाज के लोग गिरधरवाली बगीची से कंस के विशाल पुतले को लेकर लाठियों के साथ कंस अखाड़े तक जाते हैं तथा वहां पर कृष्ण के द्वारा कंस का बध कराते हैं और गाते हैं

कंस बली रामा के संग

सखा शूर से ये आए व्रजनगरी जू

कंस के बध के बाद उसके चेहरे को बल्ली पर टांग कर आगे आगे चतुर्वेद समाज के लोग वापस जाते हैं और गाते हैंः-

कंसै मार मधुपुरी आए

कंसा के घर के घबराए।

अगर चंदन से अंगन लिपाए

गज मुतियन के चैक पुराये

सब सखान संग मंगल गाए

दाढ़ी लाए मूछउ लाए

मार मार लऋन झूर कर आए। अंत में कंस के पुतले को पटक कर उसकी पिटाई करते हैं और उसे पतित पावनी यमुना में प्रवाहित कर देते है। सबसे अंत में मिहारी सरदारों द्वारा विश्रामघाट पर दोनो भाइयों की आरती होती है। मेले का समापन तीन वन की परिक्रमा से होता है।


शंकरलाल चतुर्वेदी ने बताया कि कंस वध के पाप को दूर करने के लिए चतुर्वेद समाज के लोग मथुरा, गरूड़ गोविन्द एवं वृन्दावन की परिक्रमा करते हैं। उनका कहना था कि चातुर्मास में सभी तीर्थ ब्रज में रहते हैं इसलिए अन्य स्थानों पर न जाकर तीन वन की परिक्रमा की जाती है।

उन्होंने बताया कि एक बार प्रयागराज को सभी तीर्थों का राजा बनाकर भगवान श्रीकृष्ण रासलीला करने चले गए। वे जब लौटकर आए तो तीर्थराज प्रयाग ने उनसे शिकायत की कि उनका कहना मथुरा तीर्थ ने नही माना है, इस पर भगवान श्रीकृष्ण ने प्रयागराज से कहा था कि उन्होंने उनको तीर्थों का राजा बनाया था किंतु अपने घर का राजा नही बनाया था। इसलिए प्रायश्चित स्वरूप वह सभी तीर्थेां को लेकर चातुर्मास में ब्रज में रहे। सभी तीर्थों के ब्रज में रहने के लिए चतुर्वेदियों को कंस बध में सहयोग करने के बावजूद अन्यत्र जाने की आवश्यकता नही पड़ती। कुल मिलाकर कंस मेला नई पीढ़ी को यह संदेश देता है कि जन कल्याण ही उनका मुख्य उद्देश्य होना चाहिए।

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