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कुम्भ का अतीत और उसकी महत्ता

कुम्भ का अतीत और उसकी महत्ता

कुम्भनगर 15 जनवरी (वार्ता) कुम्भ का इतिहास और उसकी महत्ता के बारे में स्कन्द पुराण और बाल्मीकि रामायण में उल्लेख मिलता है।

धार्मिक ग्रंथों के अनुसार माना जाता है कि पहले कुम्भ का आयोजन राजा हर्षवर्धन के राज्यकाल (664 ईसा पूर्व) में आरंभ हुआ था। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेंगसांग ने अपनी भारत यात्रा का उल्लेख करते हुए कुम्भ मेले के आयोजन का उल्लेख किया है। साथ ही साथ उसने राजा हर्षवर्द्धन की दानवीरता का भी जिक्र किया है। ह्वेंगसांग ने कहा है कि राजा हर्षवर्द्ध हर पांच साल में नदियों के संगम पर एक बड़ा आयोजन करते थे, जिसमें वह अपना पूरा कोष गरीबों और धार्मिक लोगों में दान दे देते थे।

ग्रंथों के अनुसार इन संयोग में कुम्भ का आयोजन होता है। बृहस्पति के कुम्भ राशि में तथा सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने पर हरिद्वार में गंगा के किनारे पर पर कुम्भ का आयोजन होता है। दूसरा जब बृहस्पति के मेष राशि में प्रविष्ट होने तथा सूर्य और चन्द्र के मकर राशि में होने पर अमावस्या के दिन प्रयागराज में त्रिवेणी संगम तट पर कुम्भ का आयोजन होता है। तीसरा कुम्भ बृहस्पति एवं सूर्य के सिंह राशि में आने पर नासिक में गोदावरी के किनारे पर कुम्भ का आयोजन होता है और बृहस्‍पति के सिंह राशि में तथा सूर्य के मेष राशि में प्रविष्‍ट होने पर उज्‍जैन में शिप्रा तट पर कुम्भ का आयोजन होता है।

बाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि श्री राम अपने वनवास काल में जब ऋषि भारद्वाज से मिलने गए तो वार्तालाप में ऋषिवर ने कहा कि हे राम गंगा यमुना के संगम का जो स्थान है वह बहुत ही पवित्र है आप वहां भी रह सकते हैं

श्रीरामचरितमानस में प्रयागराज की महत्व का वर्णन बहुत रोचक तरीके से और विस्तार पूर्वक किया गया है -

माघ मकरगत रवि जब होई । तीरर्थ पतिहिं आव सब कोई।।

देव दनुज किन्न्र नर श्रेनी । सादर मज्जहिं सकल त्रिवेणी ।।

पूजहिं माधव पद जल जाता । परसि अछैवट हरषहिं गाता ।।

भरद्वाज आश्रम अति पावन । परम रम्य मुनिवर मन भावन ।।

तहां होइ मुनि रिसय समाजा । जाहिं जे मज्जन तीरथ राजा।।

बाल्मीकि रामायण के अनुसार माघ के महीने में त्रिवेणी संगम स्नान का यह रोचक प्रसंग कुम्भ के समय साकार होता है। साधु-संत प्रातःकाल संगम स्नान करके कथा कहते हुए ईश्वर के विभिन्न स्वरूपों और तत्वों की विस्तार से चर्चा करते हैं। कुम्भ भारतीय संस्कृति का महापर्व है और इस पर्व पर स्नान दान ज्ञान मंथन के साथ ही अमृत प्राप्ति की बात भी कही गई है। कुम्भ का बौद्धिक पौराणिक ज्योतिषी के साथ-साथ वैज्ञानिक आधार भी है। भारतीय संस्कृति की के आदि ग्रंथ है इसका वर्णन वेदो में भी मिलता है।

प्रयागराज की महत्ता वेदों और पुराणों में विस्तार बताई गई है । एक बार शेषनाग से की ऋषिवर ने भी यही प्रश्न किया था कि प्रयागराज को तीर्थराज क्यों कहा जाता है । इस पर शेषनाग ने उत्तर दिया कि एक ऐसा अवसर आया जब सभी तीर्थों की श्रेष्ठता की तुलना की जाने लगी उस समय भारत में समस्त तीर्थो को तुला के एक पलड़े पर रखा गया और प्रयागराज को दूसरे पलड़े पर फिर भी प्रयागराज का पलड़ा भारी पड़ गया । दूसरी बार सप्तपुरियों को एक पलड़े में रखा

गया और प्रयागराज को दूसरे पलड़े पर वहां भी प्रयागराज वाला पलड़ा भारी रहा । इस प्रकार प्रयागराज की प्रधानता सिद्धि और इसे तीर्थों का राजा कहा जाने लगा इस पावन क्षेत्र में दान पुण्य कर्म यज्ञ आदि के साथ-साथ त्रिवेणी संगम का अति

महत्वपूर्ण महत्व है।

रामायाण के अनुसार संपूर्ण विश्व का एकमात्र स्थान है जहां पर तीन-तीन नदियां गंगा यमुना सरस्वती मिलती है यहीं से अन्य नदियों का अस्तित्व समाप्त होकर आगे एक मात्र नदी गंगा का महत्व शेष रह जाता है इस भूमि पर स्वयं ब्रह्मा जी ने यज्ञ आदि कार्य संपन्न की ऋषि और देवताओं ने त्रिवेणी संगम में स्नान कर अपने आप को धन्य माना मत्स्य पुराण के अनुसार धर्मराज युधिष्ठिर ने एक बार मारकंडे जी से पूछा ऋषिवर यह बताएं कि प्रयागराज क्यों जाना चाहिए और वहां संगम स्नान का क्या फल है इस पर मारकंडे ने उन्हें बताया कि प्रयागराज के प्रतिष्ठानपुर से लेकर वासुकी के हृदयोपरिपर्यन्त कंबल और अश्वतर दो भाग हैं और बहुमूलक नाग है । यही प्रजापति का क्षेत्र है जो तीनों लोकों में विख्यात है । धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यहां पर स्नान करने वाले विभिन्न दिव्यलोक को प्राप्त करते हैं और उनका पुनर्जन्म नहीं होता है। पदम पुराण कहता है कि या यज्ञ भूमि है देवताओं द्वारा सम्मानित इस भूमि में यदि थोड़ा भी दान किया जाता है तो उसका अनंत फल प्राप्त होता है । प्रयागराज की श्रेष्ठता के संबंध में यह भी कहा गया है कि जिस प्रकार ग्रहों में सूर्य और नक्षत्रों में चंद्रमा शेष होता है उसी तरह तीर्थों में प्रयागराज सर्वोत्तम तीर्थ है।

मध्य काल इतिहास में अकबर के दरबारी अबुल फजल ने आईने अकबरी में लिखा है कि हिंदू लोग प्रयाग को

तीर्थराज कहते हैं यहीं पर गंगा यमुना और सरस्वती तीनों का संगम है। कुम्भ का महत्व न केवल भारत में वरन विश्व के अनेक देशों में है इस प्रकार कुम्भ को वैश्विक संस्कृति का महापर्व कहा जाए तो गलत नहीं होगा। क्योंकि इस दौरान दुनिया के अनेक देशों से लोग आते हैं और हमारी संस्कृति में रचने बसने की कोशिश करते हैं इसलिए कुम्भ का महत्व और बढ़ जाता है कुम्भ पर्व प्रत्येक 12 वर्ष पर आता है प्रत्येक 12 वर्ष पर आने वाले कुम्भ पर्व को अब शासन स्तर से महाकुम्भ और इसके बीच छह वर्ष पर आने वाले पर्व को कुम्भ की संज्ञा दी जा गई है ।

पुराणों में कुम्भ की अनेक कथाएं मिलती है भारतीय जनमानस में तीन कथाओं का विशेष महत्व कुम्भ पर्व के

संदर्भ में पुराणों में तीन अलग-अलग कथाएं मिलती है । प्रथम कथा के अनुसार कश्यप ऋषि का विवाह दक्ष प्रजापति की पुत्री दिति और अदिति के साथ हुआ था। अदिति से देवों की उत्पत्ति हुई तथा दिति दैत्य पैदा हुए एक ही पिता की संतान होने के कारण दोनों ने एक बार संकल्प लिया कि वे समुद्र में छिपी हुई बहुत सी विभूतियों एवं संपत्तियों को प्राप्त कर उसका उपयोग करें ।

इस प्रकार समुद्र मंथन एकमात्र उपाय था समुद्र मंथन उपरांत 14 रत्न प्राप्त हुए जिनमें से एक अमृत कलश भी था इस अमृत कलश को प्राप्त करने के लिए देवताओं और दैत्यों के बीच युद्ध छिड़ गया क्योंकि उसे पीकर दोनों अमृत की प्राप्ति करना चाह रहे थे । स्थिति बिगड़ते देख देवराज इंद्र ने अपने पुत्र जयंत को संकेत किया और जयंत अमृत कलश लेकर भाग चला इस पर देशों ने उसका पीछा किया पीछा करने पर देवताओं और दैत्यों पर 12 दिनों तक भयंकर संघर्ष संघर्ष के दौरान अमृत कुम्भ को सुरक्षित रखने में बृहस्पति सूर्य और चंद्रमा ने बड़ी सहायता की और उनके हाथों में जाने से कुम्भ को बचाया ।

सूर्य भगवान ने कुम्भ की फूटने से रक्षा की और चंद्रमा ने अमृत छलक ने नहीं दिया, फिर भी संग्राम के दौरान मची उथल-पुथल से अमृत कुंभ से चार बूंदे छलक की गई यह अलग-अलग चार स्थानों पर गिरी इनमें से एक गंगा तट हरिद्वार में दूसरी त्रिवेणी संगम प्रयागराज में तीसरी क्षिप्रा तट उज्जैन में और चौथी गोदावरी तट नासिक में इस प्रकार इन चारों स्थानों पर अमृत प्राप्ति के कामना से कुम्भ पर्व मनाया जाने लगा कुम्भ की कथाओं के अनुसार देवता और व्यक्तियों में 12 दिनों तक जो संघर्ष चला था उस दौरान अमृत कुम्भ से अमृत की जो बूंदे चलती थी और जिन स्थानों पर गिरी थी वहीं वहीं पर कुम्भ मेला लगता है क्योंकि देवों के इन 12 दिनों में 12 मानवी वर्षों के बराबर माना गया है । इसलिए कुम्भ पर्व का आयोजन 12 वर्षों पर होता है जिस दिन अमृत कुम्भ गिरने वाली राशि पर सूर्य चंद्रमा और बृहस्पति का सहयोग हो उस समय पृथ्वी पर कुम्भ होता है राशि विशेष में सूर्य और

चंद्रमा के स्थित होने पर उक्त चारों स्थानों पर शुभ प्रभाव के रूप में अमृत वर्षा होती है और यही वर्षा श्रद्धालुओं के लिए पूर्ण दाई मानी गई है ।

इस प्रकार से वृष के गुरु में प्रयागराज कुम्भ की गुरु में हरिद्वार तुला के गुरु में उज्जैन और करके गुरु में नासिक का कुम्भ होता है सूर्य की स्थिति के अनुसार कुम्भ पर्व की तिथियां निश्चित होती है मगर के सुर में प्रयागराज मैच के सूर्य में हरिद्वार तुला के सुर में उज्जैन और करके सूर्य में नासिक का कुम्भ पर्व पड़ता है अथर्व वेद के अनुसार अथर्व वेद के अनुसार मनुष्य को सर्व सुख देने वाला कौन प्रदान किया गया था कुम्भ में स्नान पर्व का भी अपना महत्व मुहूर्त होता है सक्रांति के पूर्व और बात की 16 घड़ियों में पुण्य काल माना गया है । मूर्ति थी आधी रात से पहले हो तो पहले दिन तीसरे पहर में पुण्य काल बताया गया है और यदि मुहूर्त तिथि आधी रात के बाद हो तो पुण्य काल प्रातः काल माना जाता है।

इसके अलावा मकर संक्रांति का पुण्य काल 40 घड़ी कर्क संक्रांति का पुण्य काल 30 घड़ी और तुला एवं मेष

का संक्रांति का पुण्य काल 20-20 घड़ी पहले और बाद में बताया गया है प्रयाग में माघ के महीने में विशेष रूप से कुंभ के अवसर पर गंगा यमुना एवं अदृश्य सरस्वती के संगम में स्नान का बहुत ही महत्व बताया गया है अनेक पुराणों में

इसके प्रमाण भी मिलते हैं प्रयागराज में प्रमुख धार्मिक मन्दिर है जिसमें शंकर विमान मंडपम ,बड़े हनुमान बंधवा रामानंदाचार्य मठ ,सिद्धेश्वर महादेव मंदिर ,जगदंबा डी मठ ,नाग वासुकी शक्तिपीठ ,एलोप शंकरी मां ,ललिता देवी मंदिर,कल्याणी मंदिर ,भारद्वाज आश्रम मंदिर ,शिव कोटि कोटि तीर्थ मंदिर, श्री हनुमान निकेतन मनकामेश्वर मंदिर ,पातालपुरी मंदिर विशेष प्रमुख है।

प्रयागराज में कुल छह कुम्भ स्नान पर्व होते हैं मकर सक्रांति ,पौष पूर्णिमा ,मौनी अमावस्या, माघी पूर्णिमा, बसंत पंचमी ,महाशिवरात्रि प्रयागराज कुम्भ का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्व है। इस बार यह प्रमुख स्नान पर्वों की तिथियां मकर सक्रांति शाही स्नान मंगलवार 15 जनवरी पौष पूर्णिमा सोमवार 21 जनवरी मौनी अमावस्या सोमवार 4 फरवरी बसंत

पंचमी रविवार 10 फरवरी माघी पूर्णिमा मंगलवार 19 फरवरी महाशिवरात्रि सोमवार चार मार्च को पड़ेगा।

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