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बिना पैसे,मात्र मिलकर प्रयास और बुझेगी बुंदेलखंड की प्यास : उमाशंकर पांडे

बिना पैसे,मात्र मिलकर प्रयास और बुझेगी बुंदेलखंड  की प्यास : उमाशंकर पांडे

झांसी 13 जून (वार्ता ) यूं तो लगभग पूरे वर्ष ही लेकिन ग्रीष्म ऋतु में उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड की बात होतेे ही पानी के लिए लोगों के बीच मचे त्राहिमाम और बदहाली की तस्वीर बरबस ही किसी के भी जहन में उतर आती है। सरकार के करोड़ों रूपये बहाने के बाद भी इस क्षेत्र में पानी के लिए हाहाकार वर्षों से ज्यों की त्यों है । इससे इतना तो तय है कि पैसा इस समस्या का समाधान नहीं है, तो फिर क्या है समाधान।

इस ज्वलंत प्रश्न के साथ जब यूनीवार्ता ने शनिवार को जलयोद्धा और जलग्राम जखनी के संस्थापक उमाशंकर पांडे से बात की तो उन्होंने बड़े ही आसान भाषा में इसका स्थायी समाधान बताते हुए कहा “ बिना अनुदान केवल सामूहिक प्रयास और मिटेगी बुंदेलखंड की प्यास ”। श्री पांडे ने यह वाक्य यूं ही कहने के लिए नहीं कहा बल्कि इसे धरातल पर सच करके दिखाया है।उन्होंने अपने गांव के लोगों को अपनी समस्याओं के लिए दूसरों का मुंह ताकने की जगह खुद कुल्हाडी, हल और कुदाल लेकर खेत में उतरने की अलख जगायी और बांदा जिले के बरबाद जखनी गांव को न केवल जलग्राम बनाया बल्कि देशभर में 1050 जलग्रामों को बनाने की प्रेरणा भी सरकार को दी।

जखनी गांव की इस जबरदस्त सफलता से प्रेरित होकर नीति आयोग ने इस गांव को “ एक्सीलेंट मॉडल गांव ” माना है और केंद्र सरकार के जलशक्ति मंत्रालय ने जखनी के नारे “ हर खेत में मेड़ और मेड़ पर पेड़ ” को पूरे देश सामने रखा है। जल शक्ति सचिव यू पी सिंह ने इस गांव को जल तीर्थ की संज्ञा दी है। बिना किसी प्रचार माध्यम के यह नारा आज देश भर में पहुंच गया है और लोगों ने अपने अपने यहां इसे अपनाया है,यहां तक कि मनरेगा के तरह केंद्र सरकार ने अधिक से अधिक खेतों मे मेड़बंदी कर पानी रोकने की बात कही है और इस तरह मेड़बंदी की प्रथा बिना प्रचार प्रसार के देश के सूखाग्रस्त क्षेत्रों मे पहुंच गयी।

श्री पांडे ने कहा कि पानी केवल हमारे बुंदेलखंड की समस्या नहीं है यह पूरे देश और पूरी दुनिया की समस्या है और इस समस्यता की विशालता और जटिलता को भांपने के बाद ही जाने माने राजनीतिज्ञ और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने तीसरा विश्वयुद्ध जल के लिए होने की आशंका व्यक्त की थी। उनकी यह शंका निर्मूल नहीं थी जिस तरह से हम पानी की बरबादी बिना सोचे समझे करते हैं उसके अगर आंकडे देखें जाएं तो बेहद चौकाने वाले हैं। नदियों को भारी तपस्या कर धरती पर लाया गया था । इस कारण हमारी संस्कृति में नदियां ,तालाब,कुंए ,बावड़ियां और जलस्रोत पूजनीय तथा जन समाज की आस्था और सहभागिता से जीवित थे लेकिन आज हमारा जनमानस जल स्रोतों से दूर हो गया है उनके प्रति उदासीन है और बिना विचारे ही जल को प्रदूषित कर रहा है।

हालात यह हो गये हैं कि मानवता के हित में नि:शुल्क पानी पिलाने वाली परंपरा के इस देश में 15 से 150 रूपये बोतल में पानी बिक रहा है। हमने पानी में भी सौदेबाजी शुरू कर दी है और इस सब के बीच हम यह भूल गये कि अगर पानी का भी कारोबार होने लगा तो गरीब अपनी प्यास कैसे बुझायेगा, किसान खेताें को पानी कैसे देगा,भूजल कैसे रीचार्ज होगा। पानी को बड़े बड़े बांधों में बांधकर अपने आधीन करने का काम हो रहा है। पानी के अभाव में सामाजिक और आर्थिक तानाबाना पूरी तरह से टूटता नजर आता है। ऐसे में पानी के लिए पराधीन किसान आत्महत्या नहीं करेगा तो क्या करेगा। पानी के अभाव में खेती छोड़ देगा और काम धंधे के अभाव में गांव छोड़ देगा। इस तरह सम्मानपूर्वक गांव में जीने वाला स्वावलंबी किसान बड़े बड़े शहरों में मजदूर के रूप में नारकीय जीवन जीने को मजबूर होगा। यहीं तो बुंदेलखंड में हुआ है।

सोनिया

वार्ता

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