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बटागुर प्रजाति के कछुओ के जन्म लेने से चंबल सेचुरी को नई उम्मीद

बटागुर प्रजाति के कछुओ के जन्म लेने से चंबल सेचुरी को नई उम्मीद

इटावा , 26 जून(वार्ता)देश के तीन राज्यों उत्तर प्रदेश, राजस्थान तथा मध्यप्रदेश में सैकडों जलचरों को जीवनदान देने वाली चंबल नदी में इस बार पांच हजार से ज्यादा दुर्लभ प्रजातियों कछुओं के जन्म लेने से इनके संरक्षण को नये आयाम मिलने की उम्मीद जगी है।

विश्व में चंबल एकमात्र ऐसा स्थान है, जहां शेड्यूल-1 की श्रेणी में सुमार (साल) बटागुर और ढोंड प्रजाति के कछुए यह पाये जाते है। इस बार चंबल सेंचुरी में पांच हजार से ज्यादा कछुओं ने यहां जन्म लिया है। इनमें शेड्यूल-1 की श्रेणी में सुमार (साल) बटागुर और ढोंड प्रजाति के कछुए भी शामिल हैं। इस प्रजाति के कछुए सारी दुनिया में विलुप्तप्राय माने जाते है।

चंबल सेंचुरी के जिला वनाधिकारी आनंद कुमार ने बुधवार को यहाँ बताया कि दुर्लभ प्रजातियों के कछुओं के जन्म लेने के बाद विभागीय टीम ने चंबल नदी पर सतर्कता बढ़ा दी है। जन्म लेने वाले कछुओं के मूवमेंट की निगरानी की जा रही है। चंबल नदी में सात प्रकार की दुर्लभ प्रजातियों के कछुओं का संरक्षण किया जा रहा है।

श्री कुमार ने बताया कि इस बार चंबल सेंचुरी में 300 घोंसले रखे थे । जिनमें सेंचुरी कर्मियो ने 6085 अंडों की गिनती की थी । हैचिंग के बाद 5792 शिशु कछुओं की गिनती की गई । पिछले साल 1824 कछुए ही जन्म ले सके थे ।

कभी गंगा-यमुना समेत सभी प्रमुख नदियों में पाया जाने वाला कछुआ अब केवल चंबल सेंचुरी में ही बचा है। शायद यही वजह है कि उत्तर सरकार ने इस विलुप्तप्राय कछुए को बचाने के लिए टर्टल सर्वाइवल एलाइंस से मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग (एमओयू) किया है।

     सेंटर फॉर वाइल्ड लाइफ स्टडीज के वरिष्ठ वैज्ञानिक सलाहकार डॉ. शैलेंद्र सिंह ने बताया कि साल (बटागुर कछुआ) क्रिटीकल एंडेंजर्ड प्रजातियों में शामिल है। विश्व में चंबल एकमात्र ऐसा स्थान है, जहां यह पाया जाता है। हम हर वर्ष दो से तीन हैचरी में उनके घोंसलों को बचाते हैं। उन्होंने बताया कि विभाग उनके थोड़ा बड़ा होने तक उनकी देखरेख करता हैं, बाद में उन्हें नदी में छोड़ दिया जाता है, जहां उनका सर्वाइवल रेट अधिक होता है।

    दूसरी ओर कोऑर्डिनेटर भाष्कर दीक्षित ने बताया कि बढ़ता प्रदूषण, नदी में अवैध खनन, नदी के किनारे होने वाली खेती इनके लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। चंबल सेंचुरी में जैकॉल से भी इन्हें खतरा रहता है। टर्टल्स सर्वाइवल एलाइंस द्वारा चंबल सेंचुरी क्षेत्र में बनाए गए दो केंद्रों पर साल के कछुओं की हैचिंग कराई जाती है। इसके लिए वह नदी किनारे मादा कछुओं द्वारा अंडों को तलाशते हैं।

श्री दीक्षित ने बताया कि इटावा के गढ़ायता कछुआ संरक्षण केंद्र और देवरी ईको केंद्र पर बाद में हैचिंग कराई जाती है।

वाइल्ड लाइफ विशेषज्ञों की मानें तो चंबल में सर्वाधिक संकटग्रस्त माने जाने वाले घड़ियाल की तुलना में साल कछुऐ अधिक संकट में है। इसीलिए उसे क्रिटिकल एंडेंजर्ड कैटेगरी में रखा गया है।

       पूरे देश में कछुओं की 28 प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें से 14 केवल उत्तर प्रदेश में हैं, जिनमें से आठ चंबल में हैं। इनमें साल, ढोर, स्योतर, कटहावा, सुंदरी, कोरी पचेड़ा, पचेड़ा प्रमुख हैं। चंबल  सेंचुरी  में फरवरी और मार्च में मादा कछुओं ने नदी के किनारे बालू में अंडे दिए थे। तब से चंबल  सेंचुरी  विभाग के अफसर इनकी निगरानी करने मे जुटे हुए थे। मई के दूसरे पखवाड़े में अंडों की हैचिंग (अंडों को सेकने की प्रक्रिया) शुरू हुई। गढ़ायता, हरलालपुरा, पिनाहट, मऊ, मुकुटपुरा हैचरी क्षेत्र में नन्हें मेहमानों ने जन्म लिया और बालू पर सरकते हुए नदी में पहुंचना शुरू हो गए। पहले दौर में बटागुर प्रजाति और उसके बाद अन्य प्रजातियों की हैचिंग की गई। अच्छी बात ये है कि इस बार 5792 कछुए जन्मे, जबकि पिछले वर्ष यह संख्या मात्र 1824 पर सिमट गई थी।

    मादा कछुआ 30 अंडे तक देती है। सामान्यत वह रात में अंडे देती है। अंडे देने के बाद उसको मिट्टी तथा बालू से ढक देती है। विभिन्न प्रजातियों के अंडों से निकलने का समय भिन्न-भिन्न होता है। अंडे से निकलने में बच्चों को 60 से 120 दिन का समय लगता है।

सं भंडारी

वार्ता

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