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लोकरुचि


फिल्मलैंड के लिए मुफीद है चंबल की वादियां

फिल्मलैंड के लिए मुफीद है चंबल की वादियां

इटावा , 22 सितंबर (वार्ता) उत्तर प्रदेश में फिल्मसिटी के निर्माण के लिये जारी कवायद के बीच इटावा के बाशिंदो काे भरोसा है कि नैसर्गिक सुंदरता की पर्याय चंबल घाटी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के फिल्मलैंड के सपने में चार चांद लगाने में मददगार साबित हो सकती हैं।

वैसे चंबल के बीहड़ मायानगरी के निर्माता निर्देशकों के लिये दशकों से आकर्षण का केन्द्र बने रहे है। कई नामी गिरामी फिल्मों की शूटिंग चंबल के दुर्दांत दस्यु सरगनाओ के जीवन पर फिल्माई जा चुकी है जबकि यहां की नैसर्गिक सुंदरता कश्मीर की वादियों को कई मायनों पर टक्कर देती है। इस लिहाज से चंबल फिल्मलैंड के लिए सबसे मुुफीद मानी जा रही है ।

फिल्म निर्माण से जुड़ी कई हस्तियाें का मानना है कि प्राकृतिक तौर पर बेहद आंनदमयी चंबल घाटी को फिल्मलैंड के रूप मे स्थापित कर फिल्मकारो के लिए एक नया रास्ता खोला जा सकता है ।

तेलंगाना के जानेमाने फिल्मकार,गजलकार डा.गजल श्रीनिवास का कहना है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से आग्रह है कि अगर फिल्मसिटी चंबल घाटी मे बनाया जाता है तो फिल्मकारो को शूटिंग के लिहाज से बहुत ही अधिक फायदा होगा क्योंकि यहाॅ पर बहुत ही सुकुन है। लोकेशन बहुत ही शानदार है जो किसी भी फिल्म के लिए सबसे महत्वपूर्ण है ।

श्री निवास कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पांच नदियों के संगम स्थल पशनदा को पर्यटक स्थल बनाने का फैसला भी कर चुके है ऐसे में चम्बल को अगर फ़िल्मलैंड की ओर ले जाया जाता है तो निश्चित है यह कोशिश चंबल के लिहाज से बहुत ही सार्थक होगी।

चंबल मे मैला प्रथा पर फिल्म निर्माण कर चुके मास्साब, बंदूक,जैसी सम्मानित और पुरस्कृत फिल्मों के लेखक निर्देशक,तेलुगु फिल्मों के सुप्रसिद्ध अभिनेता आदित्य ओम चंबल घाटी को फिल्म निर्माण के लिए सबसे बेहतर मानते है । ओम कहते है कि चंबल घाटी मे शूटिंग हर लिहाज से बेहतर है । चाहे वो लोकशन हो या फिर कोई और भी जरूरत हर जरूरत आपकी पूरी हो सकती है । चंबल घाटी की नैसर्गिक सुंदरता विदेश के खूबसूरत पर्यटन स्थलो को भी मात देती है। इसी धरोहर को आज ना केवल सुरक्षित रखने की जरूरत है बल्कि उसको लोकप्रिय भी बनाना है ।

के.आफिस चंबल इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिबल के चैयरमैन मोहनदास का मानना है कि अगर चंबल घाटी को फिल्मलैंड का दर्जा मिलता है तो चंबल मे विकास के नये आयमो का सृजन तो होगा ही साथ ही रोजगार की भी नई संभावनाए जरूर बनेगी ।

अखिलेश सरकार मे फिल्म विकास परिषद के सदस्य रहे विशाल कपूर ने कहा “ उत्तर प्रदेश मे फिल्म सिटी की बात चली है, तो यह जान लीजिए अगर दूसरा कार्यकाल अखिलेश यादव को मिला होता,तो अब तक फिल्म रिलीज का वक्त आ जाता। अखिलेश यादव ने जिस भी काम मे हाथ डाला,अपने सधे हुए हुनरमंद हाथों से उस काम को तय वक्त में पूरा किया। ”

चंबल फाउंडेशन के संस्थापक शाह आलम ने कहा कि एक दौर ऐसा आया जब देश में बनने वाली हर चैथी फिल्म की कहानी या लोकेशन चंबल घाटी होती रही है । इसी वजह से चंबल घाटी को फिल्मलैंड कहा जाता है। जमींदारों के अत्याचार, आपसी लड़ाई और जर, जोरू और जमीन के झगड़ों को लेकर 1963 में आई फिल्म मुझे जीने दो के बाद इस विषय पर सत्तर के दशक में बहुत सारी फिल्में, चंबल के बीहड़ और बागियों को लेकर बनीं जिनमें डाकू मंगल सिंह -1966, मेरा गांव मेरा देश-1971, चम्बल की कसम-1972, पुतलीबाई-1972, सुल्ताना डाकू-1972, कच्चे धागे-1973 , प्राण जाएँ पर बचन न जाए-1974, शोले-1975, डकैत-1987,बैंडिट क्वीन-1994, वुंडेड -2007, पान सिंह तोमर- 2010, दद्दा मलखान सिंह और सोन चिरैया-2019 और निर्भय सिंह आदि प्रमुख हैं। इन फिल्मों में से कुछ फिल्मों में चंबल की वास्तविक तस्वीर बड़ी विश्वसनीयता के साथ अंकित हुई है। शाह बताते है कि घाटी में फिल्मांकन की दृष्टि से पीला सोना यानी सरसों से लदे खेत, इसके खाई-भरखे, पढ़ावली-मितावली, बटेश्वर, सिंहोनिया के हजारों साल पुराने मठ-मन्दिर, सबलगढ़, धौलपुर, अटेर, भिंड के किले, चंबल सफारी में मगर, घड़ियाल और डाल्फिनों के जीवन्त दृश्य और चाॅदी की तरह चमकती चंबल के रेतीले तट और स्वच्छ जलधारा । इसके अलावा और भी बहुत कुछ है चम्बल में, जिस पर फिल्मकारों और पर्यटकों की अभी दृष्टि पड़ी नहीं है। चंबल बहुत ही उर्वर है इस मामले में नए फिल्मकारों को इसका लाभ उठाना चाहिये।

खूंखार डाकुओं की शरणस्थली के तौर पर दशकों तक कुख्यात रही प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर चंबल घाटी फिल्म फिल्मकारो के आकर्षण बडा केंद्र बनाई जा सकती है ।

भारतीय सिनेमा इतिहास मे अभी तक डाकुओ के जीवन या फिर डाकुओ से जुडी हुई फिल्मो को बनाने के दौरान इस बात का ध्यान जरूर रखा गया है कि निर्माता निर्देशको ने चंबल के बीहडो का ही रूख किया है । हिंदी फिल्मकारों के लिए डकैत और बीहड़ शुरू से ही पसंदीदा विषय रहे हैं । ‘जिस देश में गंगा बहती है’, ‘मेरा गांव मेरा देश’, ‘मुझे जीने दो’, ‘बिंदिया और बंदूक’, ‘डकैत’ ‘शोले’ जैसी कई फिल्मों में खूबसूरत बीहड़ और डकैतों के जुल्म की दास्तां को पर्दे पर उतारा गया है । इससे पहले डाकू हसीना,डाकू सुल्ताना,मदर इंडिया,डाकू मंगल सिंह,डाकू सुल्ताना,जीने नही दूंगा,मेरा गांव मेरा देश, के अलावा सिनेमा निर्माताओ को कोई नाम नही सूझा तो चंबल की कसम और चंबल के डाकू नाम से ही फिल्मे बना दी गई ।

यह तो सिर्फ बानगी भर थी यही कारण है कि प्रकृति की इस अद्भुत घाटी को दुनिया भर के लोग सिर्फ और सिर्फ डकैतों की वजह से ही जानते हैं । इसी के कारण बालीबुड भी मुंबई की रंगीनियों से हटकर चंबल की इन वादियों की ओर आकर्षित हुआ और फिल्मों ने दुनिया भर के दर्शकों का मनोरंजन किया ।

चंबल के डकैतों पर आधारित सौ से अधिक फिल्में बन चुकी हैं । बीहड़ न सिर्फ विकास में बल्कि इतिहास में भी उपेक्षा झेलता आया है। आज बीहड़ की पहचान उसकी बदनामी से ही होती है । पीले फूलों के लिए ख्याति प्राप्त रही यह वादी उत्तराखंड की पर्वतीय वादियों से कहीं कमतर नहीं है । अंतर सिर्फ इतना है कि वहां पत्थरों के पहाड़ हैं तो यहां मिट्टी के पहाड़ है । बीहड़ की ऐसी बलखाती वादियां समूची पृथ्वी पर अन्यत्र कहीं नहीं देखी जा सकतीं हैं।

तिग्मांशु धूलिया बालीवुड के ऐसे फिल्मकार है जो किसी भी परिचय के मोहताज नही है । जहाॅ बालीवुड के ज्यादातर डायरेक्टर विदेशी लोकेशन को पंसद करते है वही धूलिया का लगाव अपने देश की कुख्यात चंबल घाटी से है । चंबल घाटी के प्रति उनकी दीवानगी का आलम यह देखा जा रहा है कि चंबल घाटी की तुलना वे अमरीका के ग्रांड कैनीयन से करने से भी पीछे नही है लेकिन चंबल के बदलते मिजाज से परेशान घूलिया यह कहने से भी नही चूकते कि अगर समय रहते चंबल के लिये कुछ किया नही गया तो देश के बेहतरीन पर्यटन केंद्र को हम लोग खो देगे ।

सं प्रदीप

वार्ता

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