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लोकरुचि


मलूक दास के दोहे मानवीय मूल्यों के लिये आज भी प्रासंगिक

मलूक दास के दोहे मानवीय मूल्यों के लिये आज भी प्रासंगिक

कौशाम्बी 13 अप्रैल (वार्ता) मध्य युगीन हिन्दी साहित्य में सन्त परम्परा की अन्तिम कड़ी के रूप में प्रसिद्ध सन्त शिरोमणि मलूक दास के दोहे मानवीय मूल्यों को स्थापित करने तथा सामाजिक सरसता को बनाये रखने में आज भी बहुत प्रासंगिक है। सन्त मलूक दास का जन्म पुरातन में वत्स देश की राजधानी रही वर्तमान कौशाम्बी जिले के ऐतिहासिक स्थान ‘कड़ा’ में सम्वत् 1631 में वैशाख बदी पंचमी को हुआ था। 108 वर्ष का लम्बा जीवन जीकर इस सन्त ने वैशाख बदी चतुर्दशी सम्वत् 1739 को इस संसार से महा प्रयाण किया। भक्ति भावना से अभिभूत अपनी जिन अभिभूतियों को इस सन्त ने पदनात्मक रूप मे गाया। वे दाेहे इतने लोकप्रिय साबित हुए कि दूर दूर तक कुछ भी न जानने वाले किसान मजदूरों से भी उन्हे आज भी सुना जाता है। अजगर करे न चाकरी पंछी करै न काम। दास मलूका कह गए सब का दाता राम।। मलूकदास का यह दोहा सम्पूर्ण विश्व मे अपनी सारगर्भिता को लेकर साहित्यकारों के बीच कौतुहल का विषय बना हुआ है। उपरोक्त दोहे को लेकर लोग इस संत को न केवल याद करते हैं, बल्कि उनकी स्मृति को अपने जेहन मे सहेज कर रखे हुए हैं। सं नरेन्द्र राज जारी वार्ता

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