कानपुर 11 अप्रैल (वार्ता) अनियमित खानपान और भागदौड भरी जिंदगी के बीच तेजी से उभर रही समस्या पीठ दर्द को आमतौर पर लोगबाग अधिक गंभीरता से नही लेते मगर चिकित्सकों का मानना है कि शुरूआती दौर में दर्द को नजरअंदाज करना उम्र बढने के साथ बडी परेशानी का सबब बन सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में 30 साल की उम्र से ऊपर का हर पांचवा व्यक्ति किसी न/न किसी वजह से पीठ दर्द की समस्या से पीडित है। चिकित्सक इसके लिये सडक दुर्घटनाओं की बढती आवृत्ति के अलावा लांग ड्राइविंग और कम्प्यूटर पर एक अवस्था में घंटो बैठकर काम करने की प्रवृत्ति समेत अन्य कारकों को जिम्मेदार मानते हैं। कानपुर स्थित लाला लाजपत राय अस्पताल के अस्थि रोग विभाग के वरिष्ठ चिकित्सक रोहित नाथ ने ‘यूनीवार्ता’ को बताया कि हाल के सालों में पीठ दर्द से ग्रसित मरीजों विशेषकर युवा वर्ग की तादाद में उल्लेखनीय इजाफा हुआ है। बैकपेन से पीडित उनके पास हर रोज आने वाले कई मरीज ऐसे होते हैं जिन्हे सालों पहले कोई चोट लगी थी अथवा उनकी नियमित दिनचर्या में मोटरसाइकिल पर लंबी दौड, कम्प्यूटर पर देर तक काम करने का बोझ के अलावा फास्टफूड का अत्यधिक सेवन आदि शामिल था। उन्होने बताया कि शहरों में ट्रैफिक के बढते बोझ के कारण आयेदिन होने वाली दुर्घटनाओं में खासी बढोत्तरी हुयी है जबकि स्पीड ब्रेकरों की बढती तादाद, लैपटाप अथवा मोबाइल को घंटो एक अवस्था में बैठकर निहारने की प्रवृत्ति, जंक फूड के व्यापक इस्तेमाल से बढता मोटापा हड्डियों पर अतिरिक्त बोझ डाल रहे हैं। इसके अलावा स्कूली बच्चों के कंधो पर भारी भरकम बैग और युवाओं के लैपटाप बैग हड्डी की समस्या को बढावा दे रहे हैं।
डा़ नाथ ने बताया कि हड्डी रोग के शुरूआती लक्षण पता चलते ही इसे व्यायाम अथवा दवाइयों की मदद से दूर किया जा सकता है मगर चिकित्सीय परामर्श में लेटलतीफी अथवा विशेष लक्षणों पर शल्य चिकित्सा अाखिरी विकल्प साबित होती है। मेरूदंड यानी रीढ़ की हड्डी कशेरूका और उनके बीच डिस्क से बनी हैं जिनके बीच में कोशिकायें होती है मेरूदंड दिमाग़ से लेकर पीठ के निचले हिस्से तक जाती हैं। पीठ में होने वाला दर्द आम तौर पर मांसपेशियों, तंत्रिका, हड्डियों, जोड़ों या रीढ़ की अन्य संरचनाओं में महसूस किया जाता है। इस दर्द को अक्सर गर्दन दर्द, पीठ के ऊपरी हिस्से के दर्द, पीठ के निचले हिस्से के दर्द या टेलबोन के दर्द (रीढ़ के आखिरी छोर की हड्डी में) में विभाजित कर सकते हैं। यह लगातार या कुछ अन्तराल पर भी हो सकता है। चिकित्सक ने बताया कि बैकपेन की सर्जरी युवा, अधेड अथवा बुजुर्गो के लिये अलग- अलग हो सकती है। इनके लिये एक सी चिकित्सीय पद्धति कारगर नही होगी। मसलन युवाओं में आमतौर पर पीठ दर्द के पीछे डिस्क प्रोलेप्स कारक होता है जबकि 40 से 60 वर्ष के उम्र के लोगों में स्पांडलाइटिस, कैनाल स्टेनोसिस की समस्या पायी जाती है जबकि बुजुर्गो में हड्डी में चूने की कमी से आमतौर पर आस्टियोपोरोसिस और पीठ के पीछे ज्वाइंट में गठिया यानी आस्टियाे आर्थाइटिस की बीमारी होती है।
डा़ नाथ ने बताया कि डिस्क प्रोलेप्स अथवा स्लिपड डिस्क की समस्या से ग्रसित मरीज को हफ्तों तक कमर के नीचे दर्द बना रहता है। हर दो वर्टेब्रे के बीच में एक डिस्क होती है। डिस्क के अंदरूनी हिस्से को न्यूक्लियस और बाहरी को एन्यूलस कहते हैं। न्यूक्लियस के विकार के कारण नर्व रूट पर पडने वाले दबाव के कारण मरीज काे असहनीय पीडा का अनुभव होता है। विशेष प्रकार के व्यायाम और दवाओं से आराम नही मिलने पर सर्जरी के जरिये डिस्क एक्सिजन किया जाता है जिससे मरीज कुछ ही समय में पहले की तरह स्वस्थ हो जाता है। उन्होने बताया कि साइटिका के मामले में कमर के निचले भाग में मरीज को असहनीय दर्द होता है। स्पांडलाइटिस में डिस्क का अंदरूनी हिस्सा यानी न्यूक्लियस सूख जाता है जबकि कैनाल स्टेनोसिस में नर्व सिकुड जाती है। तीनों ही मामलों में मरीज की शल्य चिकित्सा की स्थिति में कैनाल वाइडनिंग के जरिये मरीज का इलाज किया जाता है। चिकित्सक ने बताया कि उम्र बढने के साथ शल्य चिकित्सा जटिल होती जाती है। बुजुर्गो मे आस्टियो आर्थराइटिस के ज्यादा प्रभावित डिस्क को फ्यूजन के जरिये निकाल दिया जाता है जिससे बाधित नर्व रूट सामान्य हो जाता है और मरीज को आराम मिलता है।
डा़ नाथ ने बताया कि आमतौर पर चिकित्सक शल्य चिकित्सा से परहेज करता है। इसके लिये ए बी सी डी ई फार्मूले को अपनाया जाता है। ए मतलब सिकाई, सिकाई से आराम न/न मिले तो बी मतलब जेल का इस्तेमाल इसके बाद सी यानी व्यायाम और फिर डी मतलब ड्रग्स के जरिये इलाज किया जाता है जबकि आखिर में ई मतलब एपीड्यूरल स्टेरायड इंजेक्शन को मेरूदंड के निचले हिस्से में लगाया जाता है। इस इंजेक्शन से आपस में चिपकी नसें अलग हो जाती है जबकि नसों की सूजन में भी आराम मिलने से दर्द स्वत: गायब हो जाता है। अगर इन उपायों से भी मरीज को आराम न/न मिले तो उस स्थिति में शल्य चिकित्सा अंतिम विकल्प के तौर पर काम में आता है। चिकित्सक ने बताया कि शल्य चिकित्सा माइक्रोडिसेटोमी विधि से की जाती है जिसमें पीठ में एक इंंच का चीरा लगाकर माइक्रोस्कोप के जरिये खराब डिस्क को निकाल दिया जाता है अथवा दबी कोशिकाओं को अलग कर दिया जाता है। आपरेशन में करीब एक घंटे का समय लगता है और एक हफ्ते के आराम के बाद व्यक्ति स्वस्थ हाेकर सामान्य कामकाज निपटा सकता है। यह आपरेशन कम से कम 98 प्रतिशत मामलों में यह कारगर रहता है। प्रदीप नरेन्द्र चौरसिया वार्ता