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डोली के प्रचलन में आने से कहारों की उम्मीद को लगे पंख

डोली के प्रचलन में आने से कहारों की उम्मीद को लगे पंख

लखनऊ ,10 मई (वार्ता) पिछले कुछ दशकों के दरम्यान इतिहास के पन्नो में सिमट चुकी डोली में दुल्हन की विदाई की परंपरा के फिर से प्रचलन में आने लगी है।

सदियों तक शादी ब्याह के मौको पर बेटी की विदाई का एकमात्र जरिया डोली फटाफट जिंदगी के इस दौर में विलुप्त प्राय: हो चुकी थी हालांकि पिछले कुछ सालों से डोली का क्रेज बढा है। धनाड्य वर्ग ने डोली की परंपरा को स्टेटस सिंबल के तौर पर अपनाया है जिसका अनुसरण अब मध्यम वर्ग भी धीरे धीरे करने लगा है।

डोली के बढते प्रचलन ने इस पेशे से जुड़े कहारों की उम्मीदों को हवा दे दी है। करीब चार दशक पहले तक शादियों में डोली कहार का अपना एक अलग महत्त्व होता था| ग्रामीण क्षेत्रों में डोली को म्याना, पीनस,पालकी आदि कई नामों से जाना जाता था| कोई भी बारात जाती थी तो दूल्हे को डोली में बिठाकर चार-पांच कश्यप या निषाद बिरादरी के लोग उठाकर ले जाते थे और जब बारात की विदाई होती थी तो उधर से दुल्हन को डोली में लेकर वर पक्ष के दरवाज़े पर आते थे| इस एवज में कहारों को तयशुदा पारिश्रमिक एवं इनाम-इकराम मिलता था|

लखनऊ के जानेमाने कारोबारी दीपक मल्होत्रा ने कहा कि डोली की बात ही निराली है। महंगी लग्जरी कारों की बजाय डोली में दुल्हन की विदाई न सिर्फ अपनी संस्कृति को जीवंत रखने का एक साधन है बल्कि आकर्षक ढंग से सजी डोली किसी का भी मन मोह लेती है।

मल्होत्रा ने कहा कि हाल ही में उन्होेने अपनी बेटी की विदाई डोली में की। यह परिवार का एक सामूहिक फैसला था जिसे ब्याह में आये मेहमानों ने भी खूब सराहा।

ग्राम ननसोहा निवासी किसान रामलखन का पुश्तैनी कारोबार कहार का रहा है। वह कहते हैं अब पहले जैसे डोली कहार के कद्रदान नहीं रहे| जमाना बदला तो डोली का स्थान लग्ज़री कारों ने ले लिया| अब कोई भी वर-वधू डोली के बजाए फूल गुलदस्तों से सजी धजी लक्ज़री कार से जाते हैं| डोली और कहार इतिहास के पन्नों में खो कर रह गये हैं|

डोली के बढते प्रचलन से उत्साहित राजधानी के कई बैंडबाजों के संचालकों ने अपने प्रतिष्ठान में डोली का भी इंतजाम कर लिया है। अमीनाबाद में ऐसे ही एक संचालक अब्दुल सत्तार ने कहा कि पिछले तीन चार दशकों से डोली का इस्तेमाल लगभग समाप्त हो गया था हालांकि अब लोगबाग डोली में विदाई को पसंद करने लगे हैं। उनके पास डोली के अार्डर भी आने लगे हैं।

उन्होने कहा कि कार की तुलना में डोली का सौदा अपेक्षाकृत महंगा है। उसका कारण है कि डोली को सजाने के लिये आकर्षक कपडों का इस्तेमाल होता है और एक या दो इस्तेमाल के बाद डोली की फिर से साज सज्जा की जाती है। इसके अलावा डोली के लिये कहारों की जरूरत पडती है जिनका पारिश्रमिक भी ठीक ठाक होता है।

सत्तार ने कहा कि महंगी होने के बावजूद लोगबाग डोली की बुकिंग कराने लगे हैं हालांकि यह तादाद बेहद कम है। फैशन में आ चुकी डोली का आकर्षण यदि ऐसे ही बरकरार रहा तो वह दिन दूर नही जब दुल्हने डोली में विदा होती दिखाई देंगी और इस बहाने कुछ और लोगों को रोजगार मिलेगा।


प्रसिद्ध रचनाकार दर्शन कुमार कहते हैं कि दशकों पहले डोली की सवारी एक परम्परा ही नहीं बल्कि शान-शौकत की बात मानी जाती थी| डोली का जुडाव भारतीय संस्कृति से रहा है इसलिए जो पारम्परिक गीत गाए जाते हैं उनमे इनका वर्णन मिलता है| डोली और कहार शादी ब्याह के अलावा राजा एवं ताल्लुकेदारों की सवारी के रूप में काम करते थे,लेकिन अब डोली- कहार अप्रासंगिक बन कर रह गये है।

श्री कुमार ने कहा कि पहले के समय में डोली कहार के बिना शादी ब्याह के खुशनुमा माहौल में सूनापन नज़र आता था| समय बदला अब न डोली कहार किसी शादी ब्याह में दिखाई देते हैं और न ही वर वधू की किसी डोली में बैठकर जाते दिखाई देते हैं| अब फूलों गुलदस्तों से सजी कार में बैठकर दूल्हा दुल्हन शादी की रस्मरिवाजों को पूरा करते हुए वर पक्ष के वहां नव वधू आती है|

पालकी डोली का सदियों पुराना नाता जो हमारे समाज से था वह अब इतिहास की बात हो कर रह गया है| अब उसकी स्मृति शेष पुराने फ़िल्मी नगमों, दृश्यों तथा नानी-दादी द्वारा कही जाने वाली पारम्परिक लोक शैली की कहानियों तक ही सीमित होकर रह गयी हैं|पहले डोली-पालकी का प्रयोग शादी ब्याह तक ही सीमित नहीं था बल्कि राजा महाराजा और तालुकेदार भी उस पर बैठ कर यात्राओं पर जाते थे|

वरिष्ठ पत्रकार एवं रंगकर्मी ज्ञान प्रकश सिंह ‘प्रतीक’ ने बताया कि तत्कालीन कसमंडा नरेश राजा जवाहर सिंह एवं राजा महमूदाबाद जब अपनी रियासत के दौरे पर निकलते थे तो वह पालकी में बैठ कर ही जाते थे| इन्हीं राजाओं ने सीतापुर कारागार का निर्माण कराया था।


मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित पद्मावत महाकाव्य में डोली का वर्णन उस समय मिलता है जब राजा रतनसिंह अलाउद्दीन खिलजी की कैद में होते हैं उस समय रानी पद्मावती खिलजी को संदेशा भेजती हैं कि हम 700 सहेलियों के साथ आपके पास आ रहे हैं। इन सात सौ पालकियों में राजा रतन सिंह के वफादार सैनिक डोली में बैठकर जाते हैं जो डोली उठाने वाले के रूप में सैनिक ही थे । जैसे ही यह डोलियां अलाउद्दीन खिलजी के खेमे में पहुँचती तो खिलजी के सैनिक रानी पद्मावती व उनकी सहेलियों के चक्कर में धोखा खा गए।

डोलियों में सवार एवं डोलियां उठाने वाले सैनिक अलाउद्दीन के सेना पर टूट पड़ते हैं| इसी युद्ध के दौरान वह राजा रतन सिंह को अलाउद्दीन की कैद से मुक्त करने में सफल हो जाते हैं।

ब्रिटिश राज के दौरान सामंतवादी सोच के लोग दलितों व गरीबों को शादी ब्याह के दौरान डोली का प्रयोग नहीं करने देते थे। ब्रिटिश काल में उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड को मिलाकर संयुक्त प्रान्त आगरा अवध के नाम से जाना जाता था।

अल्मोड़ा जिला के क्षेत्र में एक दलित बारात को सामंती लोगों ने इसलिए नौ दिन तक बंधक बनाये रखा था कि इस बारात में वर-वधू डोली पर सवार होकर जा रहे थे। इस घटना की रिपोर्ट जब पत्रकार एन. के. नौटियाल ने कलकत्ता के कुछ नामचीन अख़बारों में प्रकाशित करायी तब इसे न सिर्फ महात्मा गाँधी ने संज्ञान लिया बल्कि दुखी होकर इस घटना को अपने समाचार पत्र “हरिजन” में प्रमुखता से प्रकाशित किया।

उन्होंने घटना की सही जानकारी लेने व घटना के दोषी सामन्ती लोगों पर कार्रवाई कराने व बारात को उनके चंगुल से मुक्त कराने के लिए पंडित जवाहर लाल नेहरू को घटनास्थल पर भेजा| नेहरु जी के प्रयास से न सिर्फ बारात सामंती लोगों से मुक्त करायी गयी बल्कि दोषी लोगों पर कार्रवाई भी हुई।

प्रदीप तेज

वार्ता

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