इलाहाबाद, 15 जून (वार्ता) समाज के विकास में फिल्मों की अहम भूमिका को स्वीकार करते हुये देश के जानेमाने रंगकर्मी सुधीर सिन्हा ने कहा कि फिल्मकारों को देश के विकास को ध्यान में रखते हुए ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्मों को प्राथमिकता देनी चाहिए।
सिन्हा ने शुक्रवार को यूनीवार्ता से कहा, “ देश की करीब 70-75 फीसदी आबादी का जीवन गांव पर निर्भर है, लेकिन बॉलीवुड केवल 30-25 फीसदी चकाचौंध जिंदगी को ही रूपहले पर्दे पर प्राथमिकता देती है। आधे से अधिक आबादी का जीवन खेत, खलिहान, गांव के पोखरे और तालाबों, तथा लोकगीतों के इर्द-गिर्द मंडराता रहता है। बॉलीवुड के फिल्मकारों को आज देश के विकास को ध्यान में रखकर ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्म निर्माण पर भी विचार करना चाहिए।”
उन्होंने कहा कि नाटक और सिनेमा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब फिल्में नहीं बना करती थी तब नाटक और नौटंकी ही मनाेरंजन के साधन हुआ करते थे। सिनेमा और इंटरनेट से जुड़े मनोरंजन के माध्यमों ने आम लोगों को रंगमंच से दूर कर दिया। नाटक पहले मनोरंजन का मुक्त साधन हुआ करता था। मनोरंजन के अनेक साधन विकसित होने के कारण नाटकों में लोगों की रूचि कम होने लगी है।
रंगकर्मी ने कहा, “ देश सीमा लांघकर बाहर नहीं जा पा रहा है। जिस तरह ब्रितानी समाज ने शेक्सपियर को दुनिया में प्रतिष्ठित किया, उसके लिए प्रयास किया वैसा सहयोग हमें अपने यहां नाटकों को प्रतिष्ठित करने के लिए नहीं मिल रहा है।”
उन्होंने कहा कि हम जो मंच पर खेलते हैं वह नाटक है और उसे ही रूपहले पर्दे पर पेश किया जाता है तो सिनेमा बन जाता है। रंगमंच के कलाकार (नाटक) को प्रर्याप्त धन नहीं मिलता लेकिन सिनेमा में अपार धन और शोहरत है। नाटकों में आज भी मुंशी प्रेमचंद से जुड़े गांव के चरित्रों को प्रस्तुत किया जाता है जबकि सिनेमा ने गांव के दृश्यों से दूरी बना ली है।
दिनेश प्रदीप
चौरसिया
जारी वार्ता