नई दिल्ली, 08 फरवरी (वार्ता) उच्चतम न्यायालय ने समलैंगिकता को अपराध घोषित करने वाले 2013 के अपने फैसले के खिलाफ दायर सुधारात्मक (केविएट) याचिकाओं को गुरुवार को 'अप्रभावी' घोषित कर दिया।
मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति बीआर गवई, न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी, न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पांच सदस्यीय पीठ ने दो सदस्यीय पीठ के फैसले के खिलाफ दायर सुधारात्मक याचिकाओं को अपने 2018 के एक फैसले के मद्देनजर अप्रभावी घोषित करते हुए इससे संबंधित कार्यवाही बंद करने का फैसला किया।
गौरतलब है कि शीर्ष अदालत की दो सदस्यीय पीठ ने 11 दिसंबर 2013 को समलैंगिकता को भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत अपराध घोषित किया था।
दूसरी ओर, शीर्ष अदालत की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 2018 में 'नवजोत सिंह जोहर और अन्य की रिट याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा था कि समान लिंग वाले वयस्कों के बीच सहमति से बनाए गए संबंध को अपराध नहीं बनाया जा सकता है।
उच्चतम न्यायालय ने इस प्रकार अपने दो सदस्यीय पीठ के फैसले के खिलाफ दायर सुधारात्मक याचिका को पांच सदस्यीय संविधान पीठ के फैसले के मद्देनजर नजर अप्रभावी बना दिया।
पीठ ने कहा, 'नवतेज जौहर बनाम भारत संघ मामले में इस अदालत द्वारा दिये गये फैसले से सुधारात्मक याचिकाएं अप्रभावी हो गयी हैं।'
दिल्ली उच्च न्यायालय ने 'नाज़ फाउंडेशन बनाम भारत संघ' (2009) मामले में आईपीसी की धारा 377 को रद्द कर दिया था।
हालाँकि, 2013 में 'सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज़ फाउंडेशन' मामले में शीर्ष अदालत की दो सदस्यीय पीठ ने दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया और दंडात्मक प्रावधान की वैधता को बरकरार रखा।
शीर्ष अदालत ने जनवरी 2014 में कई समीक्षा याचिकाओं को खारिज कर दिया था।
उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 2018 में रिट याचिकाओं की सुनवाई करते हुए कहा कि था कि समान लिंग वाले वयस्कों के बीच सहमति से बनाए गए संबंध को अपराध नहीं बनाया जा सकता है। तब अदालत ने उस सीमा तक प्रावधान को रद्द कर दिया था। अदालत ने तब कहा था, "संवैधानिक नैतिकता की तुलना बहुसंख्यकवादी दृष्टिकोण से नहीं की जा सकती। एलजीबीटी समुदाय के पास देश के किसी भी नागरिक के समान अधिकार हैं।"
सुधारात्मक याचिका अदालत में शिकायतों के निवारण के लिए उपलब्ध अंतिम न्यायिक उपाय है, जिस पर आम तौर पर न्यायाधीशों द्वारा चैंबर में निर्णय लिया जाता है। कुछ मामलों में ही ऐसी याचिकाओं पर खुली अदालत में सुनवाई की जाती है।
बीरेंद्र , संतोष
वार्ता