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लक्ष्मी-गणेश की मूर्ति बनाने वालों से ही ‘लक्ष्मी’ दूर

लक्ष्मी-गणेश की मूर्ति बनाने वालों से ही ‘लक्ष्मी’ दूर

दरभंगा 27 अक्टूबर (वार्ता) दीपों के पर्व दीपावली के दिन सभी अपने घरों में लक्ष्मी के आगमन के लिए लक्ष्मी-गणेश की पूजा करते हैं, लेकिन अजीब विडंबना है कि उसे गढ़ने वाले कुम्हारों को ही उनकी कृपा नहीं मिल पा रही है।

दीपावली में अब एक पखवाड़े से भी कम समय शेष रह गया है और लोग तैयारियों को अंतिम रूप देने में लगे हैं। अधिकतर घरों में रंग-रोगन का काम पूरा हो चुका है और सफाई कार्य अन्तिम चरण में है। सम्पन्न लोगों ने परिधान एवं पकवान के लिए खाद्यान्न भी खरीद लिये हैं लेकिन समाज के कुछ ऐसे भी लोग हैं जो इस पर्व में सबसे महत्वपूर्ण माने जाने वाले दीप एवं कुलिया और भगवान गणेश एवं लक्ष्मी की छोटी बड़ी मूर्तियां बनाने में महीनों से लगे हुए हैं। इसे बनाने वाले कुम्हारों (कुम्भकार) के लिए यह पर्व जीवन यापन का एक बड़ा जरिया भी है। इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाए कि दीपावली के रोज लोग घरों में जिस लक्ष्मी-गणेश की पूजा, ‘लक्ष्मी’ आगमन के लिए करते हैं, उसे बनाने वाले कुम्हारों के घर से लक्ष्मी रूठी हैं।

प्रकाश पर्व के नजदीक आते ही कुम्हारों के मिट्टी के दीप एवं मूर्ति बनाने के कार्य में तेजी आ गयी है लेकिन पारम्परिक मिट्टी की दीप की जगह मोमबत्ती, सीसे की बोतलें एवं बिजली के झार-फानुस ने ले ली है। वहीं, पूजा के आयोजनों पर प्रसाद वितरण के लिए इस्तेमाल होने वाली मिट्टी की प्याली, कुल्हर एवं भोज में पानी के लिए मिट्टी के ग्लास भी प्रचलन में नहीं रह गए हैं। इसकी जगह अब प्लास्टिक ने ले ली है।

        आधुनिकता एवं आम लोगों तक केरोसिन की अनुपलब्धता की मार, दीपावली में घर-घर प्रकाश से जगमगा देने वाले दीप, कुलिया बनाने वाले कुम्भ्कारों के ऊपर भी पड़ा है। इस कारण दीप नहीं बिकने से आर्थिक परेशानी से जूझ रहे कुम्हार स्वयं दीप जलाने से वंचित रह जाते है और उनका घर अंधेरा ही रहता है। इस कारण भी कुम्भकारों की जिन्दगी में दिन-प्रतिदिन अंधेरा होता जा रहा है। वह अपनी इस पुश्तैनी कला एवं व्यवसाय से विमुख हो रहे है।

दीपावली में मिट्टी के बने लक्ष्मी-गणेश के पूजन का विशेष महत्व है। इसको लेकर बाजार में तरह-तरह की मूर्तियां एवं दीपों का बाजार सज चुका है। इस वर्ष इन मूर्तियों की कीमत बढ़ी हुई है। इसके बावजूद मूर्तियां खरीदना और उसका पूजन करना और दीप जलाने की परम्परा है।

मूर्तियों में सर्वाधिक शुद्ध माने जाने वाले एवं दरभंगा के अधिकांश लोगों की विशेष पसंद ‘मोती महल’ नामक मूर्ति है, जिसकी कीमत पिछले वर्ष की तुलना में 20 से 30 रुपये अधिक बतायी जा रही है। वहीं, सिंहासन वाली मूर्ति, पत्ती वाली मूर्ति, गणेश वाहन चूहा एवं हाथी युक्त मूर्तियों की कीमत भी 15 से 20 रुपये ज्यादा है। पिछले वर्ष मोती महल मूर्ति का सेट 110 से 135 रुपये था, जो बढ़कर 125 से 150 रुपया हो गया है। अब शहर में प्लास्टर ऑफ पेरिस (पीओपी) से बनी मूर्तियों की मांग काफी बढ़ गयी है। इसकी एक वजह इसके कम कीमत और बेहतर लुक को माना जाता है।


      शहर में इन मूर्तियों के सबसे पुराने निर्माताओं में से एक रामविलास पंडित बताते हैं कि इन दिनों मिट्टी से लेकर जलावन तक की कीमत काफी बढ़ी हुई है जबकि प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी मूर्तियों की लागत थोड़ी कम पड़ती है। निर्माण के समय रबड़ के डाई के माध्यम से इच्छा अनुसार रूप दिया जा सकता है। इससे यह लोगों को अधिक आकर्षित करते हैं।

एक अन्य मूर्तिकार विकास पंडित इसपर असहमति जताते हुए कहते हैं, “हम हाथों से भी मूर्तियों को अपने अनुसार रूप दे सकते हैं। मिट्टी की बनी मूर्तियां विसर्जन के समय आसानी से पानी में घुल जाती है, जिससे यह आज भी लोगों की पसंद का एक प्रमुख कारण है। पहले इन मूर्तियों के निर्माण में कुछ गिने-चुने लोग ही लगे हुए थे लेकिन अब इस क्षेत्र में कुछ नए लोग भी जुड़ गए हैं। मिट्टी के दीपों एवं कुलियों पर भी आधुनिकता का प्रभाव पड़ा है, जिसके कारण अब मिट्टी के कुलियों का व्यवसाय लगभग ठप पड़ गया है।”

शहर के हसनचक एवं मौलागंज के मूर्ति, दीप एवं कुलिया निर्माताओं का कहना हैं कि महंगाई के कारण हर चीज की कीमत बढ़ी है तो मूर्तियों के दाम बढ़ना भी स्वभाविक है। महंगाई का असर मूर्ति निर्माण सामग्रियों पर भी खासा पड़ा है। कुम्भकारों के अनुसार, कुम्हरौटी मिट्टी को जो पिछले वर्ष 800-900 रुपये प्रति टेलर के हिसाब से मिलती थी अभी 1000-1200 रुपये प्रति टेलर मिल रही है। फैब्रिक रंग जो 10 रुपये प्रति दस ग्राम मिलता था, वह अब 30 रुपये प्रति दस ग्राम का मिल रहा है। ऐसे में दीपों का प्रचलन का बन्द होना दुखदायी बन सकता है।

सं. सतीश सूरज

वार्ता

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