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लाकडाउन ने कछुओं को दिया वंश वृद्धि का मौका

लाकडाउन ने कछुओं को दिया वंश वृद्धि का मौका

इटावा 22 मई (वार्ता) वैश्विक महामारी कोविड-19 के कारण जारी लाकडाउन ने कलकल बहती चंबल नदी में विचरण करते दुर्लभ प्रजाति के कछुओं को सुरक्षित प्रजनन का मौका दे दिया है।

दरअसल, कोरोना वायरस के प्रसार के बाद हुए लाॅकडाउन ने हर प्रकार की गतिविधि पर रोक लगा दी है। मानव जाति के लिये संकट की इस घड़ी का फायदा उत्तर प्रदेश,मध्यप्रदेश और राजस्थान मे पसरी राष्ट्रीय चंबल सेंचुरी और अन्य नदियो,तालाबो झीलों मे पाये जाने वाले दुलर्भ प्रजाति के कछुओं को मिला है। तस्करों और शिकारियों के लिये बड़े फायदे का सौदा बनने वाले विशाल कछुये न सिर्फ स्वच्छंद विचरण कर रहे हैं वहीं बालू से पटे किनारों पर अपने अंडों की सुरक्षा भी कर पा रहे है।

देहरादून स्थित भारतीय वन्य जीव संस्थान के संरक्षण अधिकारी डा.राजीव चौहान ने यूनीवार्ता को बताया कि लाॅक डाउन मे कछुओ को दो प्रकार से फायदा पहुंचा है। एक और इनका अवैध शिकार रुका है वहीं दूसरी ओर इनके प्राकृतिक वास स्थलों को प्रजनन के लिये संरक्षण प्राप्त हुआ है ।

नदियों के आस-पास बालू के किनारों एवं दीपों पर बाटागुर ,निलसोनिया गंगेटिका, निलसोनिया ह्यूरम, जियोक्लमस हेमिल्टनाई, पंगशुरा टेक्टा, लिसीमस पंक्टाटा, चित्रा इंडिका जैसी अनेक दुर्लभ प्रजाति के कछुये फरवरी से मार्च के बीच बालू में गड्ढा खोदकर अंडे देते हैं। मानव गतिविधियों के चलते इनके अंडों को नुकसान पहुंचता था जो लाकडाउन के कारण इस बार नहीं हो सका है। काफी सारे घोसले बच गए जो निश्चित रूप से इनकी जनसंख्या में इजाफा करेंगे।

उन्होने बताया कि लाॅक डाउन के कारण वाहनो का संचालन बंद होने से कछुओं की तस्करी भी थम गयी है। अवैध रूप से कछुओं का शिकार कर पश्चिम बंगाल की ओर ले जाया जाता था। स्थानीय स्तर पर कछुओं का व्यापार अमूमन नहीं होता इसलिए शिकारियों ने कछुओं को नुकसान नहीं पहुंचाया ।

डा चौहान ने बताया कि कई वर्षों से यह देखा गया कि इटावा, मैनपुरी,औरेया से काफी सारे ट्रक हर वर्ष पकड़े जाते थे और उनका अधिग्रहण कर लिया जाता था। दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय उड़ानें रद्द होने की वजह से पालतू कछुओं के रूप में रखने वाली प्रजातियां जिओक्लिमिस हैमिल्टनाई का भी व्यापार बंद होने की वजह से इनकी भी जान बच गई । इनका भी व्यापार यहां से होता देखा गया है।

उन्होने बताया कि भारत में पाई जाने वाली कछुओं की 29 प्रजातियों में से 15 उत्तर प्रदेश में पाई जाती है । इनमें से कुछ प्रजातियां भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 के अंतर्गत संरक्षण प्राप्त है। ज्यादातर कछुए नदी,नाले,झील, तालाब इत्यादि में पाए जाते हैं । इटावा में बहने वाली नदियों एवं तालाबों झीलों में 10 प्रजातियां पाई जाती हैं जिनमें से सात संरक्षण सूची में दर्ज है।

वास्तव में कछुए जल तंत्र के प्राकृतिक सफाई कर्मी माने जाते हैं इसलिए उनका प्राकृतिक जल स्रोतों को स्वच्छ रखने में बहुत बड़ा योगदान है । कछुए शाकाहारी,मांसाहारी एवं सर्वाहारी होते हैं । अलग-अलग प्रजातियों का अलग-अलग स्वभाव है । इनके नर्म कवच वाले कछुए एवं कठोर कवच वाले कछुए के दो प्रकार होते है।

उन्होने बताया कि लाॅक डाउन खुलने के साथ ही राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन की नमामि गंगे परियोजना के अंतर्गत भारतीय वन्यजीव संस्थान देहरादून की वैज्ञानिक रुचि बडोला एवं एस.ए.हुसैन के नेतृत्व में गंगा बेसिन के अंतर्गत गंगा की सहायक नदियों में कछुओं के संरक्षण का कार्यक्रम आने वाले दिनों में यमुना,चंबल,केन,गोमती इत्यादि नदियों में भी संचालित किया जाएगा । अभी तक यह संरक्षण कार्यक्रम केवल गंगा नदी तक सीमित था ।

चंबल सेंचुरी के डीएफओ दिवाकर श्रीवास्तव ने बताया कि इटावा में पांच नदियों का संगम होने के अलावा कई ऐसे बड़े तालाब हैं, जहां लाखों की तादाद में कछुए पाए जाते हैं। यही वजह है यहां कछुआ आसानी से मिल जाता है। इनको पकड़ कर तस्कर विभाग की व्यापक सक्रियता के बावजूद देश-विदेश में बेचते रहे है । पांच नदियों के संगम वाले इलाके पंचनंदा और चंबल में कछुओं के दुश्मन भरे पड़े हैं।


इटावा परिक्षेत्र में कछुओं की तस्करी लंबे समय से जारी है। चंबल, यमुना, सिंधु, क्वारी और पहुज जैसी नदियों के अलावा अन्य छोटी नदियों और तालाबों से तस्कर कछुओं को पकड़ते हैं । 1979 में सरकार ने चंबल नदी के लगभग 425 किलोमीटर में फैले तट से सटे इलाके को राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य घोषित किया था । इसका मकसद घडियालों, कछुओं (गर्दन पर लाल व सफेद धारियों वाले कछुए) और गंगा में पाई जाने वाली डाल्फिन का संरक्षण था। अभयारण्य की हद उत्तर प्रदेश के अलावा मध्य प्रदेश और राजस्थान तक है। इसमें से 635 वर्ग किलोमीटर आगरा और इटावा में है। इटावा परिक्षेत्र की नदियों में कछुओं की लगभग 55 जतियां पाई जाती हैं, जिनमें साल, चिकना, चितना, छतनहिया, रामानंदी, बाजठोंठी और सेवार आदि प्रसिद्ध हैं।

पर्यावरणीय संस्था सोसायटी फाॅर कंजरवेशन आफ नेचर के सचिव संजीव चौहान बताते है कि वैसे तो उनका संगठन स्थानीय वन विभाग से मिल करके कछुआ तस्करो के खिलाफ लगातार अभियान चलाये हुए है लेकिन इस लाॅक डाउन के कारण कछुओ का शिकार और तस्करी करने वालो को कही जगह नही मिल सकी है इसलिए कछुओ को संजीवनी मिली है। आमतौर पर इटावा में एक किलो चिप्स का दाम 3,000 रुपए हैं। पश्चिम बंगाल पहुंचते-पहुंचते कीमत दस गुना तक पहुंच जाती है । उत्तर प्रदेश से कछुओं की सबसे ज्यादा सप्लाई पश्चिम बंगाल होती है । यहां से बांग्लादेश के रास्ते चीन, हांगकांग और थाईलैंड जैसे देशों में इन्हें बेचा जाता है।

मान्यता है कछुओं का मांस इंसानी पौरुष बढ़ाने की दवा का काम करता है । भारतीय कछुओं की खोल, मांस या फिर उसके बने चिप्स की मांग पूरी दुनिया में है। कुछ देशों में कछुए का मांस बहुत पसंद किया जाता है। कछुए के सूप और चिप्स को भी तरह से तरह से बनाकार परोसा जाता है।

चौहान ने बताया कि लॉक डाउन के बाद अब बिल्कुल तस्वीर बदली हुई दिख रही है। कहा यह जा सकता है कि लॉक डाउन में कछुओ को जीवनदान दे दिया है ।

सं प्रदीप

वार्ता

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