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लोकरुचि


मथुरा के कंस मेले में विदेश से भी आते हैं चतुर्वेद समाज के लोग

मथुरा के कंस मेले में विदेश से भी आते हैं चतुर्वेद समाज के लोग

मथुरा, 29 अक्टूबर (वार्ता) तीन लोक से न्यारी मथुरा नगरी में कंस का मेला में भाग लेने के लिए चतुर्वेद समाज के लोग विदेश से भी आते हैं। इस बार यह मेला 30 अक्टूबर को यहां आयोजित किया जा रहा है। मेले में भाग लेने के लिए चतुर्वेद समाज के लोगों का आना जारी है। इस मेले की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसे चतुर्वेद समाज ही नियंत्रित करता है। मुम्बई में कार्य कर रहे अरविन्दम चतुर्वेदी का कहना है कि यह मेला ही ऐसा अवसर होता है जब वह समाज के उन लोगों तक से मिल लेते हैं जिनसे वे 15 साल पहले मिले थे। मेले में आईसीआईसीआई बैंक दुबई से आए सिद्धार्थ तिवारी ने बताया कि इस मेले में भाग लेने से समाज की परंपरा एवं संस्कृति का ज्ञान होता है। ओमान में एक प्राइवेट कम्पनी में काम कर रहे अभिषेक चतुर्वेदी का कहना था कि वह पिछले छह साल के बाद मेले में यह देखने आए हैं कि मेले में क्या बदलाव आया है। वहीं, मुम्बई से आए मनोज चतुर्वेदी, मनीष चतुर्वेदी एवं संजीव चतुर्वेदी मेले को समाज से जुड़े रहने का मजबूत साधन मानते हैं। कुछ इसी प्रकार के विचार कलकत्ता से आए कमल चतुर्वेदी एव बंगलौर से आए अमित चतुर्वेदी के हैं।


ब्रज की विभूति रहे पं. बालकृष्ण चतुर्वेदी की पुस्तक ‘माथुर चतुर्वेद ब्राह्मणों का इतिहास’ में लिखा है कि कंस का मेला बज्रनाभ काल से चला आ रहा है। माथुर चतुर्वेद परिषद के संरक्षक महेश पाठक का कहना है कि कंस का मेला केवल चतुर्वेद समाज के कार्यक्रम के रूप में नही देखा जाना चाहिए। जिस प्रकार रामलीला के माध्यम से नई पीढ़ी में संस्कार डालने का प्रयास होता है वैसे ही इस वर्ष गोचारण किया गया है। गर्ग संहिता के गोलोक खण्ड के नवे अध्याय का जिक्र करते हुए मशहूर भागवताचार्य विभू शर्मा ने बताया कि देवकी के विवाह के समय इस आकाशवाणी ने कंस को विचलित कर दिया था कि उसका आठवां भांजा ही उसका काल बनेगा। इस आठवें भांजे को मारने के लिए कंस ने कई राक्षसों को अलग अलग भेष में भेजा किंतु जब उसके सारे प्रयास असफल हो गए तो उसका अंत निश्चय था। श्रीकृष्ण, बलराम जब मल्ल क्रीड़ा महोत्सव देखने आए तो उन्होंने धोबी बध, कुबलिया पीड़ बध और अंत में कंस द्वारा विशेष रूप से तैयार किए गए मल्ल चाणूर और मुस्टिक का बध किया। भारत विख्यात द्वारकाधीश मंदिर के जनसंपर्क अधिकारी राकेश तिवारी के अनुसार कंस के दरबार में छज्जूू नामक चौबे थे और उन्होंने ही कंस के मारने की श्रीकृष्ण और बलराम को विधि बताई थी और कंस का बध उनके द्वारा ही कराया था। उन्होंने बताया कि धानुष महोत्सव में भाग लेने आए दोनो भाइयों को चतुर्वेद बालक मुख्य आयोजन स्थल पर जब ले जाने लगे तो उन्हें रास्ते में कंस का धोबी मिलता है। बातों ही बातों में वे उसे मार देते हैं और उसके कपड़े लेकर दर्जी के पास जाते हैं तथा उन्हें कटवाकर अपने नाप का बनवा लेते हैं। लाठी इस मेले का आवश्यक अंग है जिस पर लगातार मेंहदी और तेल लगाकर कई महीने में उसे तैयार किया जाता है।


कंस मेले के दिन चतुर्वेद समाज के लोग गिरधरवाली बगीची से कंस के विशालकाय पुतले को लेकर लाठियों के साथ कंस अखाड़े तक जाते हैं तथा वहां पर कृष्ण के द्वारा कंस का बध कराते हैं। कंस बली रामा के संग सखा शूर से ये आए व्रजनगरी जू कंस के बध के बाद उसके चेहरे को बल्ली पर टांग कर आगे आगे चतुर्वेद समाज के लोग वापस जाते हैं और गाते हैंः- कंसै मार मधुपुरी आए कंसा के घर के घबराए। अगर चंदन से अंगन लिपाए गज मुतियन के चौक पुराये सब सखान संग मंगल गाए दाढ़ी लाए मूछउ लाए मार मार लट्ठन झूर करि आए। अंत में कंसखार के पास कंस के पुतले को पटक कर उसकी पिटाई करते हैं और सबसे अंत में मिहारी सरदारों द्वारा विश्रामघाट पर दोनो भाइयों की आरती होती है। मेले का समापन तीन वन यानी मथुरा, गरूड गोविन्द, एवं वृन्दावन की परिक्रमा से देवष्ठान एकादशी को होता है। सं चौरसिया प्रदीप वार्ता

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