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सस्ता अनाज भी नहीं राेक पा रहा मजदूरों का पलायन

सस्ता अनाज भी नहीं राेक पा रहा मजदूरों का पलायन

(अशोक टंडन से)

नयी दिल्ली 10 जून (वार्ता) छत्तीसगढ़ में सरकार द्वारा गरीबों को सस्ती दर पर अनाज उपलब्ध कराये जाने के बावजूद जीवन की अन्य जरूरतो को पूरा करने के लिए ग्रामीण इलाकों से मजदूरों और गरीब किसानों का अन्य राज्यों में पलायन बदस्तूर जारी है जिनमें खासी तादाद उन लोगों की भी है जिनके पास पर्याप्त खेतीबाड़ी है।

‘धान का कटोरा’ कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ से हर वर्ष मजदूरों के पलायन के कारणों में मानसून की अनिश्चितता, , पर्यावरण असंतुलन और औद्योगिकीकरण प्रमुख है। केंद्र सरकार की गांव-गांव में चलायी जा रही मनरेगा से लोगों को लाभ मिला है। इसके बावजूद भी खेतीहर मजदूरों का पलायन जारी है।

मानसून की फसल लेने के बाद रायपुर , बिलासपुर, धमतरी , महासमुंद और रायगढ़ जिलों से मजदूर और गरीब किसानों का रोजगार की तलाश में दिल्ली , पंजाब , जम्मू कश्मीर , उत्तर प्रदेश , पश्चिम बंगाल , गुजरात एवं महाराष्ट्र जाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। इस दौरान बस स्टैंड , रेलवे स्टेशन और इन राज्यों को जाने वाली ट्रेनों के आरक्षित तथा अनारक्षित डिब्बों में गृहस्थी का सामान लिए ठसाठस भरे इन मजदूरों को देखा जा सकता है।

राज्य सरकार का दावा है कि दो रूपये प्रतिकिलो की दर से चावल उपलब्ध कराने की योजना से मजदूरों के पलायन में कमी आयी है , लेकिन मजदूरों का कहना है कि इससे उन्हें भरपेट भोजन तो नसीब हुआ है परंतु बच्चों के पालन-पोषण एवं शादी-ब्याह जैसे दूसरी जिम्मेदारियों को निभाने के लिए धन जुटाने हेतु दूसरी जगह जाकर मजदूरी करना उनकी मजबूरी है।

मजदूरों के पलायन का एक कारण यह भी है कि साधन-संपन्न किसान तो सिंचाई पंपो के जरिए रबी की फसल उगा लेते हैं लेकिन ज्यादातर किसानों को खेती के लिए मानसून की बाट जोहनी पड़ती है। प्रत्येक साल अक्टूबर-नवम्बर में मानसून की फसल के बाद गरीब किसान और खेतों में दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूर कई महीनों के लिए खाली हो जाते हैं। उनके पास रोजी-रोटी कमाने का कोई जरिया नहीं रहता। ऐसी स्थिति में रोजगार की तलाश में दूसरे राज्यों में जाना उनकी मजबूरी बन जाती है। वहां काम करने के बाद मानसून की अच्छी बारिश होने की आस लिए ये लोग गर्मियों की समाप्ति के समय अपने घर लौटने लगते है।

घरबार छोड़कर जाने वाले ये गरीब मजदूर मुख्य तौर पर ईंटे बनाने का काम करते हैं। देश के उत्तरी और उत्तर-पूर्व राज्यों में ज्यादातर ईंट भट्ठों के मालिक छत्तीसगढ़ के मजदूरों से ही काम कराना पसंद करते हैं , क्योंकि ये सस्ती मजदूरी पर भी काम करने के लिए राजी हो जाते हैं।

धान की कटाई और संग्रहण का काम पूरा हो जाने के बाद ईंट भट्ठा मालिकों और ठेकेदारों का छत्तीसगढ़ में जमावड़ा शुरू हो जाता है। उनके और मजदूरों के बीच मजदूरी तथा दूसरी सुविधाओं की बात तय होती है जिसकी कड़ी बनता है मजदूरों का मुखिया। स्थानीय तौर पर ये मुखिया मजदूरों के सरदार कहलाते हैं , जो मजदूरों को उनके काम के ठिकानों तक पहुंचाने , रहने और उन्हें वापस गांव लाने की जिम्मेदारी उठाते हैं।

ईंट भट्ठों में काम करने वाले कुछ मजदूरों से बातचीत में कुछ और भी पहलू सामने आये। ये मजदूर बताते हैं कि रोजगार की तलाश में गांव से निकलने के साथ ही उनके शोषण का सिलसिला शुरू हो जाता है। श्रम विभाग के कर्मचारियों से लेकर टिकट निरीक्षक और रेलवे राजकीय पुलिस के जवान तक उनसे वसूली में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते। ईंट भट्ठों के आसपास ही इन मजदूरों को ईंटों से बनी छोटी-छोटी कोठरी में रखा जाता है। चिमनी की रोशनी में ही भोजन बनाना और अन्य काम करना पड़ता है। ऐसे माहौल में रहने की मजबूरी किसी कालकोठरी की सजा से कम नहीं होती। कहीं-कहीं तो भट्ठा मालिक मजदूरों के भागने की आशंका के कारण लठैत भी रखते हैं। ऐसी स्थिति में मजदूरों को हर दिन डर के साए में गुजारना पड़ता है।

ईंट भट्ठों में मजदूरों को बंधक बना लिए जाने की घटनाओं के बारे में उनका कहना था कि इस तरह की घटनाएं कभी-कभी होती है। अमूमन उनके ठेकेदार या मालिक अच्छे नियोक्ता की तरह उन्हें उचित मजदूरी देते हैं और खान-पान की सुविधा उपलब्ध कराने के साथ ही बीमारी की स्थिति में इलाज के लिए मदद भी करते हैं।

जरुरतें पूरी करने के लिए दूसरे राज्यों में जाने की मजबूरी इतनी बड़ी है कि आतंकवादी घटनाएं भी उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। जम्मू कश्मीर के ईंट भट्ठों से लौटे जांजगीर-चांपा जिले के मालखरौदा क्षेत्र के मजदूर परिवारों का कहना था , “ जान के खतरा हा सबो जगह रहिथे बाबू पर पापी पेट के खातिर कमाये बर नही जाबो ता फेर काय खाबो।” उल्लेखनीय है कि कुछ साल पहले जम्मू कश्मीर के अनंतनाग जिले में आतंकवादियों ने ईंट भट्ठा मजदूरों के ठिकाने पर गोलीबारी की थी , जिसमें छत्तीसगढ़ के 10 मजदूरों की मौत हो गयी थी।

वार्ता

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