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त्रिपुरा में मंदिरों में पशु-बलि रोक पर मिश्रित प्रतिक्रिया

त्रिपुरा में मंदिरों में पशु-बलि रोक पर मिश्रित प्रतिक्रिया

अगरतला 28 सितंबर (वार्ता) त्रिपुरा में मंदिर परिसरों में पशुओं और पक्षियों की बलि पर पुरी तरह रोक लगााने के उच्च न्यायालय के आदेश को लेकर मिश्रित प्रतिक्रिया व्यक्त की जा रही है। पशु-पक्षी प्रेमियों एवं बुद्धिजीवियों ने अदालत के इस आदेश का स्वागत किया है जबकि राज्य में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी इस निर्णय से खुश नहीं है।

राज्य सरकार के सूत्रों पर यकीन करें तो राज्य सरकार उच्च न्यायालय के इस आदेश को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दे सकती है। भाजपा सरकार का मानना है कि उच्च न्यायालय के आदेश से हिंदू धर्मावलंबियों की भावना को चोट पहुंची है तथा इससे उदयपुर स्थित प्रसिद्ध त्रिपुरेश्वरी देवी मंदिर में पशु बलि देने जैसी सदियों पुरानी पंरपरा पर रोक लगी है।

गौरतलब है कि इस मंदिर में एक समय में मानव बलि की परंपरा थी और पिछले 500 वर्षाें से अभी तक इस मंदिर में पशु-बलि का रिवाज है।

राज्य के कानून मंत्री रतन लाल नाथ ने कहा,“हमने अभी तक फैसले का विश्लेषण नहीं किया है और राज्य सरकार उच्च न्यायालय के आदेश को स्वीकार करने या चुनौती देने से पहले उचित स्तर पर चर्चा करेगी। यह सरकार हमेशा अदालत और अन्य लोकतांत्रिक स्तंभों के प्रति सम्मानजनक और वफादार है लेकिन सरकार की कार्रवाई भी सभी के लिए स्वीकार्य हो।”

राज्य के भाजपा नेताओं ने मंदिरों में पशुबलि को रोकने के फैसले का विरोध किया और तर्क दिया कि यह संविधान के अनुच्छेद 25 में निहित धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। भाजपा नेताओं ने समाज पर पड़ने वाले प्रभाव को देखते हुए उच्च न्यायालय से इस फैसले की समीक्षा करने का अनुरोध किया है।

इस बीच, विपक्षी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने फैसले का स्वागत करते हुए उम्मीद जताई है कि राज्य सरकार संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र का नमूना पेश करने के लिए इस फैसले का पालन करेगी।

अदालती फैसले पर कांग्रेस ने अभी तक कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है।

मुख्य न्यायाधीश संजय करोल और न्यायमूर्ति अरिंदम लोध की खंडपीठ ने कहा कि एक अधिनियम द्वारा राज्य केवल किसी धार्मिक प्रथा से जुड़े किसी भी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या धर्मनिरपेक्ष गतिविधि को विनियमित या प्रतिबंधित कर सकता है। मंदिर की नियमित गतिविधियों में सरकार की भूमिका ऐसी धार्मिक गतिविधियों तक ही सीमित है, जो धर्मनिरपेक्ष हैं।

अदालत ने कहा कि पशु के बलिदान की लंबी प्रथा, राज्य या किसी व्यक्ति द्वारा, धर्म का एक अनिवार्य हिस्सा नहीं कहा जा सकता है। इस तरह, पशुबलि नैतिकता और स्वास्थ्य के सिद्धांत के खिलाफ होने के कारण अनुच्छेद 25 (1) के तहत संरक्षित नहीं है। यह पशु अधिनियम, 1960 के क्रूरता निवारण अधिनियम के प्रावधानों के भी खिलाफ है।

धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, स्वास्थ्य और भाग- III के अन्य प्रावधानों के अधीन है। एक मंदिर में जानवर की बलि, जो कि धर्म का अनिवार्य हिस्सा नहीं है, संविधान के अनुच्छेद 21 का भी उल्लंघन है। आदेश में कहा गया है कि भक्त किसी भी जानवर को व्यक्तिगत विश्वास, भरोसे या इच्छा से मंदिर में ले जा सकते हैं लेकिन, पशु को सुरक्षित वापस लाना होगा और किसी भी परिस्थिति में पशु बलि की किसी भी गतिविधि को करने की अनुमति नहीं दी जाएगी। अदालती आदेश में कहा गया,“सरकार ऐसे पशुधन को पालने के लिए आश्रय गृह खोलने के लिए भूमि का निर्धारण कर सकती है।”

संजय, प्रियंका

वार्ता

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