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राज्य » बिहार / झारखण्ड


लोकरूचि-सामा-चकेवा बिहार तीन अंतिम पटना

सामा चकेवा पर्व में बहनें सामा-चकेवा, सतभइया, खड़रीच, चुगिला, वृन्दावन, चैकीदार, झाझीकुकुर, साम्भ आदि की प्रतिमा एवं उपकरण मिट्टी एवं खड़ से बनाती हैं, और उसे डाला (बांस की बनी टोकरी) में लेकर शाम होते ही शहर एवं गांव के चौक-चैराहा एवं जुते हुए खेतों में जुटतीं हैं और सामा-चकेवा से संबंधित पारम्परिक गीतों का गायन करतीं हैं। इसके बाद खड़ से बनी वश्न्दावन में आग लगातीं हैं और बुझातीं हैं। इस दौरान महिलाएं ‘वश्न्दावन में आगि लागल क्यो न बुझाबै हे, हमरो से बड़का भइया दौड़ल चली आबए हे, हाथ सुवर्ण लोटा वश्न्दावन मुझावै हे’ इसके बाद महिलाएं चुगला (संठी से निर्मित) को गालियां देती हुई। उसके ढाढी में आग लगाते हुए गाती है कि ‘चुगला करे चुगलपन, बिल्लाई करै म्याउं, ध के ला चुगला के फांसी द आउं’।
इस दौरान सामा-चकेवा का विशेष श्रृंगार किया जाता है और उसे खाने के लिये हरे-हरे धन की बालियां दी जाती है और रात्रि में उसे युवतियों द्वारा खुले आसमान के नीचे ओस पीने के लिये छोड़ दिया जाता है। पूर्णिमा के दिन इस पर्व का समापन होता है। समापन के पूर्व भाइयों द्वारा सामा-चकेवा के मूर्तियों को घुटने से तोड़ा जाता है और उसका आकर्षक रूप से सजे बेर जो एक मंजिला, दो मंजिला और झिझरीदार एवं मंदिरनुमा होता है। उसमें रखकर नदी एवं तालाब या खुले खेतों में विसर्जित कर देते हैं।
पंचकोसी मिथिला में उसे जुते हुए खेतों में भसाने की परम्परा है, जबकि अन्य जगह उसे नदी एवं तालाब में प्रवाहित किया जाता है। महिलाएं अपने भाइयों को उसके धेती एवं गमछा से बने फाफर में मुढ़ी और बतासा खाने के लिये देती है। विसर्जन के दौरान महिलाएं सामा-चकेवा से फिर अगले वर्ष आने का आग्रह करते हुए ‘सामचको-सामचको अबिह हे जोतला खेत में बैसियह हे सब रंग पटिया ओछिबइह हे भइया के आषीष दीह हे’ गाना गाती है। विसर्जन के दिन भाइयों की काफी अहम भूमिका होती है।
प्रेम
वार्ता
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