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बिजनेस


कृषि विशेषज्ञों ने बीआरएल1 के परीक्षण की अनुमति देने की अपील

बेंगलुरु 26 अक्टूबर(वार्ता) कर्नाटक के वैज्ञानिकों और कृषि विशेषज्ञों ने कर्नाटक में बीटी कपास और मक्का के जैव सुरक्षा नियामक स्तर 1 (बीआरएल 1) क्षेत्र परीक्षणों की अनुमति देने की मांग की है। भारत में बीटी कपास की सफलता के बाद, 2002 के बाद से कोई अन्य फसल (जैव प्रौद्योगिकी के माध्यम से बढ़ी) जारी नहीं की गई है। जबकि किसान फसल उत्पादकता में सुधार और कीट हमले को नियंत्रित करने के लिए ऐसी तकनीकों को प्राप्त करने की लगातार मांग कर रहे हैं, परन्तु सरकार द्वारा अब तक कुछ भी नहीं किया गया है।
कर्नाटक के रायचूर स्थित कृषि विज्ञान महाविद्यालय के पूर्व कुलपति एवं वरिष्ठ एंटोमोलॉजिस्ट डॉ. बी वी पाटिल ने कहा, ‘‘खेती समुदाय द्वारा नई अभिनव विधियों/अभ्यासों को अपनाने से न केवल खाद्य उत्पादन में वृद्धि होगी, जिससे बढ़ती जनसंख्या को भोजन मिलेगा, बल्कि किसानों के लिए खेती ज्यादा फायदेमंद व सतत बनेगी, और किसानों की आय दोगुनी करने का माननीय प्रधानमंत्री का सपना पूरा हो सकेगा। इस तरह की एक अभिनव विधि सफल व प्रमाणित जीएम प्रौद्योगिकी को अपनाया जाना है। हमारे किसान बीटी जीन के अपार फायदे देख चुके हैं, जिसे कपास के पौधे में डाले जाने के बाद बॉलवॉर्म को पूरी तरह से नियंत्रित किया जा सका, जिसमें खासकर हेलिकोवर्पा बॉलवॉर्म है। इससे कपास की फसल से ज्यादा फायदा प्राप्त करने में मदद मिली। नए विचारों की खोज, यानि शोध तब तक जारी रहनी चाहिए, जब तक हम अपना अपेक्षित उद्देश्य प्राप्त न कर लें। इस मामले में, एक वैज्ञानिक, खासकर कपास, दाल एवं तिलहन में एकीकृत कीट नियंत्रण के क्षेत्र में काम करने वाले एक कीट विज्ञानी होने के नाते मैं कीट नियंत्रण की प्रौद्योगिकी के रूप में जीएम प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करने का सुझाव देता हूँ, क्योंकि इन फसलों में कीट फसल को नष्ट कर पैदावार व उत्पादन घटाने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। इस दिशा में वैज्ञानिकों द्वारा शोध परीक्षण किए जाने की अनुमति सर्वोच्च प्राथमिकता से मिलनी चाहिए। प्रौद्योगिकी के फायदों व नुकसानों को देखने के बाद, किसान समुदायों द्वारा इसे अपनाए जाने के लिए नियम बनाए जा सकते हैं।’’
फाउंडेशन फॉर एडवांस्ड ट्रेनिंग इन प्लांट ब्रीडिंग (एटीपीबीआर) के निदेशक डाॅ़ के के नारायण ने कहा,“ कपास और मक्का राज्य एवं देश के लिए महत्वपूर्ण फसलें हैं। उन पर कई कीटों का हमला होता है, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण हैं कपास के बॉलवॉर्म, जो आज के समय में मकई में सैन्य वॉर्म हैं। इन फसलों के लिए विकसित की गई बीटी प्रौद्योगिकी इन कीटों का प्रभावशाली समाधान करती है। साथ ही, निराई किसी भी फसल के लिए अति आवश्यक और अत्यधिक श्रम आधारित काम है। कृषि क्षेत्र में मानव श्रम की बढ़ती कमी, जो खासकर उस समय ज्यादा हो जाती है, जब उसकी आवश्यकता शिखर पर होती है, ऐसे समय में इन फसलों में समाविष्ट की गई शाकनाशी सहनशीलता न केवल किसानों के लिए एक वरदान होगी, बल्कि कठोर श्रम की जरूरत को भी कम करेगी और मिट्टी की सतह को छेड़े न जाने के कारण मिट्टी के क्षरण को रोकने में भी मदद करेगी। इन प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल पूरी दुनिया में विस्तृत तौर पर किया जा रहा है। हमारे देश में, बीटी जीन युक्त कपास, जो कीटों से सुरक्षित है, उसकी खेती कपास बुआई क्षेत्र की 95 प्रतिशत से अधिक जमीन पर हो रही है। साथ ही, ये विशेष उत्पाद, जिनके खेत परीक्षण के लिए अनुमोदन मांगा जा रहा है, वो सुरक्षा परीक्षण सहित कई सालों तक विकास के दौर से गुजरे हैं। एक योग्य पौध प्रजनक के रूप में, मैं इस बात की पुष्टि कर सकता हूँ कि वैज्ञानिक आँकड़ों के आधार पर ये प्रौद्योगिकी पूरी तरह से सुरक्षित हैं। इसलिए मैं दृढ़ता से अनुशंसा करता हूँ कि कपास और मकई उत्पादों के लिए इन खेत परीक्षणों को किए जाने की अनुमति मिलनी चाहिए, ताकि इस देश के किसानों व राज्य को आधुनिक विज्ञान के फायदे मिल सकें और खेत की उत्पादकता व आय में सुधार हो।’’
धारवाड़ के कृषि विज्ञान महाविद्यालय के पूर्व कुलपति एवं आईएआआई के पूर्व निदेशक डॉ. एस ए पाटिल ने कहा, ‘‘बीटी कपास ने कपास में कीटनाशकों के इस्तेमाल में भारी कटौती की है। नहीं तो इससे पहले तो कपास को कीटनाशक प्रेमी फसल के रूप में पहचाना जाता था। बीटी कपास से प्राप्त तेल को गोस्सिपोल से मुक्त कर खाने में बहुत लम्बे समय से प्रयोग में लाया जा रहा है और इसका कोई भी नुकसान नहीं है। पूरी दुनिया में 11 अलग-अलग जीएम फसलें सफलतापूर्वक उगाई जा रही हैं। अमेरिका में 90 फीसदी मकई, सोयाबीन और कपास उत्पादक क्षेत्र में जीएम फसलों की खेती होती है। अतीत में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, दिल्ली विश्वविद्यालय और कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय, धरवाड़ के वैज्ञानिकों ने अत्यधिक प्रभावशाली जीएम फसलों का विकास किया था, लेकिन उनमें से किसी का भी परीक्षण नहीं किया जा सका, वो भी अवैज्ञानिक कारणों से। अब वक्त आ गया है, जब भारत को वैज्ञानिक तरीके से सोचना चाहिए। वैज्ञानिक प्रयास के लिए सार्वजनिक राय का कोई महत्व नहीं, क्योंकि इस मामले में राय वैज्ञानिक विशेषज्ञों से ली जानी चाहिए, जो वैज्ञानिक प्रयोग के फायदे-नुकसानों को समझते हों। दुर्भाग्य से, ऐसा प्रतीत होता है कि भारत में अवैज्ञानिक तरीके आज की व्यवस्था बन चुके हैं। यद्यपि कपास उत्पादन के आंकड़े प्रौद्योगिकी की शक्ति का प्रदर्शन करते हैं, जिसके तहत बीटी कपास द्वारा कपास का उत्पादन 140लाख गांठों से बढ़ाकर 400 लाख गांठों तक ले जाया जा चुका है। भारत को कपास उत्पादन पर गर्व है, और यह केवल जीएम कपास द्वारा ही संभव हो सका। अन्यथा, हम क्षेत्रफल बढ़ाकर या थोड़ी सी उत्पादकता बढ़ाकर 150 से 200 लाख गांठों का उत्पादन ही कर रहे होते। मुझे लगता है कि सरकार द्वारा सक्रिय भूमिका निभाते हुए सभी नीति निर्माताओं, प्रौद्योगिकी के विकासकर्ताओं और खेती समुदाय के साथ वैज्ञानिक वार्ता को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। वैज्ञानिक मामलों में जन परामर्श द्वारा निर्णय लिए जाने से देश कई सालों पीछे चला जाएगा।’’
नियामक खेत परीक्षण शोध तथा विकास की प्रक्रिया के अभिन्न अंग हैं। इनके द्वारा किसी भी नई विकसित जैव प्रौद्योगिकी फसल किस्म की प्रभावशीलता का मूल्यांकन होता है। ये परीक्षण जैवप्रौद्योगिकी विभाग द्वारा निर्धारित बायोसुरक्षा के कठोर नियमों का अनुपालन करते हुए किए जाते हैं और किसी भी नई दवाई को जारी करने से पहले किए जाने वाले क्लिनिकल परीक्षणों के समान होते हैं। जिस राज्य में यह परीक्षण किया जाना प्रस्तावित है, वहां की राज्य सरकार से अनापत्ति प्रमाणपत्र (एनओसी) प्राप्त करना इस प्रक्रिया के अनुपालन की एक महत्वपूर्ण शर्त है।
कर्नाटक में हाल ही में एक कंपनी ने वन, पारिस्थितिकी और पर्यावरण विभाग से संपर्क कर बीआरएल1 परीक्षण किए जाने के लिए एनओसी की मांग की। विभाग ने उन राज्यों के कृषि विश्वविद्यालयों के अनुसंधान निदेशक एवं कुलपतियों से सुझाव लिया, जहां ये परीक्षण किए जाने थे। विभाग ने इन खेत परीक्षणों को किए जाने के लिए लोगों की राय मांगी है।
अनुसंधान के प्रयोग के लिए जन परामर्श तभी वैध व निष्पक्ष हो सकता है, जब जनता को प्रौद्योगिकी की अच्छी समझ हो। इससे जनता पर अनावश्यक भार पड़ता है। अनुसंधान के स्तर पर, परामर्श विषयवस्तु के विशेषज्ञों से लिया जाना चाहिए, ताकि संभावित फायदों का आंकलन हो सके, उसके विज्ञान को समझा जा सके और शोध परीक्षणों को किए जाने के दौरान बरती जाने वाली सावधानियों को निर्धारित किया जा सके। भारत में, आम तौर से किसी बेहतर फसल की किस्म को पर्यावरणीय रूप से जारी किए जाने के लिए जन परामर्श लिया जाता है, न कि शोध के परीक्षणों के लिए। मौजूदा व्यवस्था में एनओसी, जीईएसी (जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रेज़ल कमिटी) के अनुमोदन से लेनी होती है, लेकिन, जीईएसी से पूर्व अनुमति न होने स्थिति में राज्यों को अनुमोदन के लिए विशेषज्ञ का परामर्श लेना चाहिए। जन परामर्श पर्यावरणीय रूप से जारी किए जाने से पहले लिया जाना चाहित, ताकि उससे उत्पन्न होने वाली शंकाएं एक स्थान पर एकत्रित हो सकें और विशेषज्ञ एवं विकासकर्ता उन शंकाओं का स्पष्टीकरण दे सकें। वास्तव में, राज्यों से एनओसी कानूनी अनिवार्यता नहीं है। नई प्रौद्योगिकियों के आंकलन के लिए एक मजबूत वैज्ञानिक आधार होना, भारतीय कृषि में प्रगति लाने की दिशा में पहला व महत्वपूर्ण कदम है, जो कि जलवायु परिवर्तन के संकट को देखते हुए बहुत आवश्यक है।
शेखर
वार्ता
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