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भारत


नयी शिक्षा नीति में हिन्दी को ‘अनिवार्य’ नहीं बनाया गया

नयी दिल्ली 03 जून (वार्ता) मोदी सरकार के सत्ता सम्भालते ही हिन्दी भाषा को दक्षिण के राज्यों में कथित रूप से थोपे जाने को लेकर इतना विवाद खड़ा हो गया कि नयी शिक्षा नीति के प्रारूप को संशोधन करना पड़ा है।
नयी शिक्षा नीति का मसौदा जब 31 मई को सरकार को सौंपा गया तो दक्षिण भारत में हिन्दी को थोपे जाने का विरोध शुरू हो गया। वामदलों ने भी हिन्दी को थोपे जाने का कड़ा विरोध किया।
तब मानव संसाधन विकास मंत्रालय को शाम को एक स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा जिसमें कहा गया कि सरकार किसी पर कोई भाषा नहीं थोपेगी। पूर्व मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावेडकर ने भी स्पष्टीकरण जारी किया कि सरकार ने त्रिभाषा फार्मूले को अभी लागू नहीं किया गया है और सरकार सभी भाषाओं का सम्मान करते है और यह केवल नई शिक्षा नीति का केवल मसौदा है। इस पर लोगों की राय आने के बाद ही इसे लागू किया जायेगा।
गौरतलब है कि नयी शिक्षा नीति का प्रारूप श्री जावड़ेकर के कार्यकाल में तैयार हुआ था जब वह पूर्व सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री थे। लेकिन उनके स्पष्टीकरण के बाद भी यह विवाद थमा नहीं और दक्षिण के नेता इससे संतुष्ट नहीं हुए।
तब रविवार को विदेश मंत्री जयशंकर ने भी ट्वीट करके कहा कि मानव संसाधन विकास मंत्री को जो नयी शिक्षा नीति पेश की गयी है वह एक प्रारूप रिपोर्ट है। इस पर लोगों से राय ली जायेगी और सरकार से इस पर विचार विमर्श किया जायेगा और इसके बाद ही प्रारूप को अंतिम रूप दिया जायेगा। सरकार सभी भाषाओं का सम्मान करती है इसलिए कोई भाषा थोपी नहीं जायेगी।
नई शिक्षा नीति के मसौदे में भारत में बहु-भाषिकता की अनिवार्यता की बात कही गयी है और अंग्रेजी की जगह मातृभाषा पर जोर दिया गया है तथा स्कूलों में त्रिभाषा को अनिवार्य मना गया है तथा निरंतरता की बात कही गयी है। मसौदे के अनुसार इसे 1968 के बाद से नई शिक्षा नीति में अपनाया गया है। 1992 में भी इसे लागू किया गया और राष्ट्रीय पाठ्यचर्या के फ्रेमवर्क में भी इस पर जोर दिया गया।
सूत्रों के अनुसार अब मसौदे से अनिवार्यता शब्द को हटा दिया है और भाषा के चयन में लचीलेपन की बात कही गयी है।
अरविन्द, उप्रेती
वार्ता
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