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भारत


अब मशीन से तैयार होगा मखाना

नयी दिल्ली 23 जून (वार्ता) औषधीय गुणों से भरपूर और बेहद स्वादिष्ट होने के कारण दुनिया भर में मखाने का जायका लेने वाले बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि इसे तैयार करना बेहद श्रमसाध्य है, लेकिन इंजीनियरों ने अब इस पूरी प्रक्रिया का यांत्रिकीकरण कर इसे बेहद आसान बना दिया है।
मधुमेह और हृदयरोग में उपयोगी माने जाने वाले मखाना की व्यावसायिक खेती मुख्यत: बिहार में की जाती है और करीब 15,000 हेक्टेयर जलीय क्षेत्र में इसकी पैदावार ली जाती है। मखाने की खेती, इसके फसल की तैयारी तथा फल के उत्पादन और व्यापार से सीधे तौर पर करीब पाँच लाख परिवार जुड़े हैं। बिहार से सालाना 7,500 से 10,000 टन मखाने की खरीद की जाती है। बिहार के अलावा पश्चिम बंगाल, असम, त्रिपुरा और ओडिशा में भी छिटपुट रूप से मखाने की खेती की जाती है।
पोषण तत्वों से भरपूर मखाने में आसानी से पचने वाले प्रोटीन, खनिज, लवण, फास्फोरस, कार्बोहाइड्रेट और लौह तत्व पाये जाते हैं। इसमें वसा बहुत ही कम होता है और यह एंटीऑक्सीडेंट गुणों से भरा हुआ है। इसमें रेशे की मात्रा काफी अधिक होती है जो शरीर के लिए लाभदायक है। इसकी गुणवत्ता और अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसकी माँग के कारण कई राज्यों ने इसकी व्यावसायिक खेती में हाल में दिलचस्पी दिखायी है।
बाजार में जो मखाना उपलब्ध होता है दरअसल वह उसके पौधे के बीज से तैयार होता है। इसके बीज को पहले भूना जाता है और फिर उससे लावा तैयार होता है। मखाने का उपयोग न केवल अनेक प्रकार के धार्मिक आयोजनों में उपयोग होता है बल्कि इसके बेहद स्वादिष्ट होने के कारण तरह-तरह के व्यंजन, खीर और नमकीन तैयार किये जाते हैं जिसका न केवल देश बल्कि विदेशों में भी भारी मांग है।
मखाना के बीज से लावा तैयार करना न केवल जटिल और बहुत ही श्रमसाध्य है बल्कि इसमें समय भी अधिक लगता है। परम्परागत तौर पर मखाने का लावा तीन चरणों में तैयार होता है। इसके बीज को मिट्टी के बर्तन या कास्ट आयरन के बर्तन में 250 डिग्री से 320 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान पर भूना जाता है और हथैडे जैसी लकड़ी के भारी वस्तु से उस पर प्रहार किया जाता है जिससे इसका छिलका टूटता है और लावा बनता है। लावा बनाने के लिए कुशल और अनुभवी लोगों की जरूरत होती है क्योंकि बीज पर प्रहार में कुछ सेकेंड की देरी से ही मखाने की गुणवत्ता खराब हो सकती है।
अरुण अजीत
जारी वार्ता
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