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जलवायु सम्मेलन दुबई: वित्तीय सहायता में बड़ी वृद्धि के लिए दबाव बढ़ा सकते हैं विकासशील देश

नयी दिल्ली, 21 नवंबर (वार्ता) जलवायु परिवर्तन पर इसी माह के अंत में शुरू हो रहे संयुक्त राष्ट्र के वार्षिक शिखर सम्मेलन भारत जैसे दक्षिणी दुनिया के देश कार्बन उत्सर्जन की चुनौतियों से निपटने के लिए वित्तीय सहायता की विकसित देशों की प्रतिबद्धता में कई गुना वृद्धि किए जाने का दबाव डाल सकते हैं।
इस बार संयुक्त अरब अमीरात (दुबई) में 30 नवंबर से 12 दिसंबर तक होने जा रहे इस सम्मेलन (कॉप28) के परिप्रेक्ष्य में नयी दिल्ली के एक गैर सरकारी अनुसंधान एवं परामर्श संगठन कौंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरॉन्मेंट एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) की ओर से मंगलवार को यहां मीडिया के लिए एक वर्कशॉप में की गयी प्रस्तुति में सामने आयी।
सीईईडब्ल्यू के फैलो वैभव चतुर्वेदी ने कहा, “जलवायु परिवर्तन से निपटने में 2025 के बाद की अवधि के लिए विकासशील दुनिया की वित्तीय सहायता के लक्ष्यों को तय किया जाना है। चुनौतियों को देखते हुए यह लक्ष्य हजारों करोड़ डालर की जगह लाखों करोड़ डालर में होनी चाहिए।’’ उन्होंने कहा कि कॉप28 में ‘हानि एवं क्षति कोष’ के वित्तपोषण की व्यवस्था और इससे मिलने वाली सहायता के नियमों को भी अंतिम रूप दिलाना भी भारत और विकाशील देशों की प्राथमिकताओं में होगा।
श्री चतुर्वेदी ने कहा कि विकसित देशों ने जलवायु वित्त पोषण के लिए 100 अरब डालर सालाना की प्रतिबद्धता जताई है पर यह 35-40 अरब डालर से 85-87 अरब डालर के दायरे में ही रही है। उन्होंने कहा कि विकसित देशों पर 2030 तक कार्बन उत्सर्जन के स्तर को कम करने की अपनी राष्ट्रीय प्रतिबद्धता को और ऊंचा करने का दबाव होगा । इन देशों ने फिलहाल इसे 2019 के स्तर से 43 प्रतिशत नीचे लाने की प्रतिबद्धता घोषित की है पर वे उसमें भी पीछे हैं।
जलवायु परिवर्तन के तूफान और बाढ़ की बढ़ती घटनाओं से प्रभावित देशों की मदद के लिए हानि एवं क्षति कोष के गठन के प्रस्ताव को शर्म-अल-शेख में हुए पिछले कॉप28 में फैसला किया गया था पर अभी इसके लिए धन और इससे मिलने वाली सहायता के नियमों पर निर्णय नहीं हो सका है। श्री चतुर्वेदी ने कहा, “विकसित देश चाहते हैं कि अभी चीन और आगे चल कर भारत जैसे देश भी इस कोष में योगदान करें क्यों की उन्हें लगता है कि आने वाले समय में इस कोष से धन सहायता की मांग बढ़ेगी। पर चीन अभी विकाशील देशों की श्रेणी में है और इस इस विषय पर अभी मौन है।”
सीईईडब्ल्यू की प्रस्तुति में कहा, “एक ऐसे वर्ष में जब बढ़ते भू-राजनीतिक तनाव के बीच मौसम की चरम घटनाएं बढ़ रही हैं, अरबों लोगों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचाने के लिए ग्लोबल वार्मिंग (ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण वायुमंडल का तापमान बढ़ने की स्थिति) को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने की जरूरत है, ऐसे में यह कॉप28 बहुत महत्वपूर्ण है।”
सीईईडब्ल्यू का कहना है कि पिछले दशक के मध्य में हुए पेरिस जलवायु सम्मेलन के समझौते में 2030 तक के लिए निर्धारित लक्ष्यों की राह के मध्य बिंदु पर यह सम्मेलन हो रहा है। संगठन के नोट में कहा गया है, ‘कॉप28 की प्रमुख प्राथमिकताओं में हानि और क्षति कोष का संचालन, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए तय लक्ष्यों के वैश्विक आकल-कार्य (जीएसटी) को पूरा करना, जलवायु जवाबदेही को मजबूत बनाना, सभी खनिज ईंधनों को चरणबद्ध तरीके से घटाने पर चर्चा, एक न्यायसंगत ऊर्जा परिवर्तन को सक्षम बनाना, पारिस्थितिकी दृष्टि से स्वस्थ खाद्य प्रणालियों को विकसित करना, जलवायु वित्त और प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों को विस्तार देना शामिल है।”
सीईईडब्ल्यू की प्रस्तुति में कहा गया है कि टोक्यो सम्मेलन में तय 2020 तक के तय विकसित देशों की सामूहिक जिम्मेदारी को पूरा होने में कमी का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया जाना भारत और दक्षिणी गोलार्ध (विकासशील देश) के लिए महत्वपूर्ण है।
श्री चतुर्वेदी ने कहा कि भारत के लिए कार्बन क्रेडिट बाजार का समुचित विकास, जलवायु परिवर्तन जनित हानि एवं क्षति की लागत के आकलन के लिए वैज्ञानिक नियम और अनुकूल परिभाषाएं महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने कहा कि भारत और दुनिया को लाभ पहुंचा पहुंचाने में सहायक कार्बन क्रेडिट मार्केट्स और सतत जीवन शैली की भूमिका को मान्यता दिया जाना भी बड़े महत्व के मुद्दे हैं ।
उन्होंने कहा कि भारत जैसे देशों का दुबई सम्मेलन में यह भी प्रमुख मुद्दा होगा कि उनके यहां ऊर्जागत परिवर्तनों को उचित और न्यायसंगत परिवर्तन हासिल करने में मदद के लिए वित्तीय सहायता बढ़ायी जाए। ये देश हरित हाइड्रोजन और कार्बन कैप्चर उपयोग एवं भंडारण (सीसीयूएस) जैसी उच्च शमन और अनुकूलन क्षमता वाली आशाजनक प्रौद्योगिकियों के सह-विकास और सह-स्वामित्व के लिए विभिन्न देशों के बीच प्रौद्योगिकी साझेदारी और सहयोग बढ़ाने पर जोर दे सकते हैं।
सीईईडब्ल्यू की प्रस्तुति में कहा गया है कि विकसित देशों को 2025 तक कार्बन डाई आक्साइड उत्सर्जन में कमी के अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए 3.7 गीगाटन के बराबर के अंतर को दूर करना होगा।इसके अलावा, उन्हें वायुमंडल के तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड तक सीमित रखने के लक्ष्य को बरकरार रखने के लिए आवश्यक उत्सर्जन कटौती को भी वैश्विक औसत से ज्यादा करना होगा।
मनोहर, उप्रेती
वार्ता
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