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लोकरुचि


ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ गणेशोत्सव को आजादी का हथियार बनाया गया था

ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ गणेशोत्सव को आजादी का हथियार बनाया गया था

इलाहाबाद, 01 सितम्बर (वार्ता)  फिरंगियों की परतंत्रता से भारतीयों को आजाद कराने के लिए 126 साल पहले पहली बार लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने हथियार के रूप में गणेशोत्सव का उपयोग किया था।


       ब्रितानी हुकूमत की यातनाओं से देश कराह रहा था। अंग्रेजों की क्रूरता के खिलाफ भारतीयों को एक स्थान पर एकजुट होकर विचार-विमर्श करने के लिए एक पर्व की आवश्यकता थी। उसी परिप्रेक्ष्य में गणेशोत्सव जैसे पर्व को चुना गया जहां सभी लोग एकसाथ मिलजुल कर फिरंगियों को सत्ता से उखाड़ फेकने पर विचार विमर्श कर सकें। उस दौर में किसी हिन्दू सांस्कृतिक कार्यक्रम को एक साथ मिलकर मनाने की इजाजत नहीं थी।

       फिरंगी हुक्मरानों को हमेशा इस बात का डर सताता था कि हिन्दुस्तानी एक साथ इकट्ठा होंगे तो सरकार के खिलाफ षडयंत्र रचेंगे। उनके लाख बंदिशों के बावजूद लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में पुणे में पहली बार सार्वजनिक रूप से गणेशोत्सव का आयोजन किया।

     गणेशोत्सव पूजा को सार्वजनिक महोत्सव का रूप देते समय उसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा गया, बल्कि आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने तथा आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का जरिया बनाया गया और एक आंदोलन का स्वरूप दिया गया। इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

प्रो राव ने बताया कि उस समय गणेशोत्सव सामाजिक चेतना और राष्ट्र के प्रति एकता जागृत करने का काम किया। लोगों को देश भावना और उसकी एकता और अखण्ड़ता के प्रति ओत-प्रोत किया।  नया संचार लिए आगे चलकर वरदायिनी साबित हुआ। उन्होने कहा कि किसी भी देश में उसकी सबसे बड़ी सांस्कृतिक क्रांति होती है।  इसकी परिणति आज भारत में, नया भारत और श्रेष्ठ भारत के रूप में परिलक्षित हो रहा है।

        भारतीय पुराणों में गणेश की अनेक कथाएं समाहित हैं। ‘गणेश पुराण’ की महिमा सीमाओं की संकीर्णता से परे है, इसलिए पश्चिमी देशों की प्राचीन संस्कृतियों में भी गणेश की अवधारणा विद्यमान है।

       प्रो तिवारी ने बताया कि भारत से बाहर विदेशों में बसने वाले प्रवासी भारतीयों ने भारतीय संस्कृति की जड़ों को गहराई तक फैलाने का प्रयास किया और इन पर भारतीय देवताओं की पूजा-उपासना का स्पष्ट प्रभाव था जो आज परिलक्षित है। विदेशों में प्रकाशित पुस्तक ‘‘गणेश-ए-मोनोग्राफ आफ द एलीफेन्ट फेल्ड गॉड’’ में जो तथ्य उजागर किये गये हैं, उससे इस बात का स्पष्ट प्रमाण मिलता है कि विश्व के कई देशों में गणेश प्रतिमाएं बहुत पहले से पहुंच चुकी थी और विदेशियों में भी गणेश के प्रति श्रद्धा और अटूट विश्वास रहा है।

       प्राप्त जानकारी के अनुसार उत्सव एवं पर्वो के केंद्र तीर्थराज प्रयाग में गणेशोत्सव की शुरूआत वर्ष 1957 के आसपास दारागंज निवासी अधिवक्ता रामचंद्र गोड़बोले एवं बालाजी पाठक द्वारा की गयी। पूजा के लिए अलोपीबाग में पंजाबी कालोनी के सामने सेना से पांच हजार वर्ग गज जमीन लीज पर ली गई। धीरे धीरे इसका विस्तार हुआ। उस समय मराठी परिवार अधिक थे किन्तु अब गिने चुने मराठी परिवार दारागंज, कीडगंज,नैनी, झूंसी चौक, मीरापुर, करेली,सिविल लाइंस और गोविंदपुर आदि मुहल्ले में परिवार रहते हैं, जहां पर विघ्नहर्ता का पण्डाल सजाया जाता है।

       गणेश चतुर्थी वैसे तो पूरे देश में बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है लेकिन महाराष्ट्र में इस त्यौहार काे लेकर लोगों में एक अलग प्रकार का उत्साह देखने को मिलता है। वहां सबसे बड़ा और प्रमुख त्यौहार होता है। दो सितम्बर गणेश चतुर्थी से शुरू होकर अनन्त चतुर्दशी (अनंत चौदस) तक चलने वाला 10 दिवसीय गणेशोत्सव मनाया जाता है। पूरे दस दिनों तक चलनेवाले इस उत्सव के दौरान भगवान गणेश घर-घर और सार्वजनिक पंडालों में विराजमान होते हैं। भगवान गणेश की मूर्ति को चतुर्दशी को जल में विसर्जित किया जाता है।

प्रो राव ने बताया कि उस समय गणेशोत्सव सामाजिक चेतना और राष्ट्र के प्रति एकता जागृत करने का काम किया। लोगों को देश भावना और उसकी एकता और अखण्ड़ता के प्रति ओत-प्रोत किया।  नया संचार लिए आगे चलकर वरदायिनी साबित हुआ। उन्होने कहा कि किसी भी देश में उसकी सबसे बड़ी सांस्कृतिक क्रांति होती है।  इसकी परिणति आज भारत में, नया भारत और श्रेष्ठ भारत के रूप में परिलक्षित हो रहा है।

        भारतीय पुराणों में गणेश की अनेक कथाएं समाहित हैं। ‘गणेश पुराण’ की महिमा सीमाओं की संकीर्णता से परे है, इसलिए पश्चिमी देशों की प्राचीन संस्कृतियों में भी गणेश की अवधारणा विद्यमान है।

       प्रो तिवारी ने बताया कि भारत से बाहर विदेशों में बसने वाले प्रवासी भारतीयों ने भारतीय संस्कृति की जड़ों को गहराई तक फैलाने का प्रयास किया और इन पर भारतीय देवताओं की पूजा-उपासना का स्पष्ट प्रभाव था जो आज परिलक्षित है। विदेशों में प्रकाशित पुस्तक ‘‘गणेश-ए-मोनोग्राफ आफ द एलीफेन्ट फेल्ड गॉड’’ में जो तथ्य उजागर किये गये हैं, उससे इस बात का स्पष्ट प्रमाण मिलता है कि विश्व के कई देशों में गणेश प्रतिमाएं बहुत पहले से पहुंच चुकी थी और विदेशियों में भी गणेश के प्रति श्रद्धा और अटूट विश्वास रहा है।

       प्राप्त जानकारी के अनुसार उत्सव एवं पर्वो के केंद्र तीर्थराज प्रयाग में गणेशोत्सव की शुरूआत वर्ष 1957 के आसपास दारागंज निवासी अधिवक्ता रामचंद्र गोड़बोले एवं बालाजी पाठक द्वारा की गयी। पूजा के लिए अलोपीबाग में पंजाबी कालोनी के सामने सेना से पांच हजार वर्ग गज जमीन लीज पर ली गई। धीरे धीरे इसका विस्तार हुआ। उस समय मराठी परिवार अधिक थे किन्तु अब गिने चुने मराठी परिवार दारागंज, कीडगंज,नैनी, झूंसी चौक, मीरापुर, करेली,सिविल लाइंस और गोविंदपुर आदि मुहल्ले में परिवार रहते हैं, जहां पर विघ्नहर्ता का पण्डाल सजाया जाता है।

       गणेश चतुर्थी वैसे तो पूरे देश में बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है लेकिन महाराष्ट्र में इस त्यौहार काे लेकर लोगों में एक अलग प्रकार का उत्साह देखने को मिलता है। वहां सबसे बड़ा और प्रमुख त्यौहार होता है। दो सितम्बर गणेश चतुर्थी से शुरू होकर अनन्त चतुर्दशी (अनंत चौदस) तक चलने वाला 10 दिवसीय गणेशोत्सव मनाया जाता है। पूरे दस दिनों तक चलनेवाले इस उत्सव के दौरान भगवान गणेश घर-घर और सार्वजनिक पंडालों में विराजमान होते हैं। भगवान गणेश की मूर्ति को चतुर्दशी को जल में विसर्जित किया जाता है।

दिनेश प्रदीप

वार्ता

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