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त्याग और संतोष से बनेंगे स्थितप्रज्ञ - तद्रूपानंद

भोपाल, 28 फरवरी (वार्ता) गुजरात के भरूच में मनन आश्रम के संस्थापक आचार्य स्वामी तद्रूपानंद सरस्वती ने कहा है कि त्याग और संतोष से स्थितप्रज्ञ बनेंंगे।
आधिकारिक जानकारी के अनुसार स्थितप्रज्ञ दर्शन विषय पर प्रबोधन आचार्य शंकर सांस्कृतिक एकता न्यास, संस्कृति विभाग द्वारा 29वीं शंकर व्याख्यानमाला का आयोजन किया गया, जिसमें मनन आश्रम के संस्थापक आचार्य स्वामी तद्रूपानंद सरस्वती ने बताया कि दो महाकाव्य और चार महावाक्य में सम्पूर्ण सनातन दर्शन अभिव्यक्त होता है।
उन्होंने दर्शन की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया कि दर्शन का अर्थ होता है जानना, न कि देखना। उन्होंने कहा कि भगवत गीता के कृष्णार्जुन संवाद में स्थितप्रज्ञ की परिभाषा दी गई है। अर्जुन श्री कृष्ण से स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के लक्षण पूछते हैं, जिसका उत्तर देते हुए भगवान कहते हैं कि जब साधक समस्त वासनाओं का त्याग कर देता है और अपने से अपने में संतुष्ट रहता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।
उन्होंने बताया कि अनासक्ति और इच्छाओं के त्याग के द्वारा ही मनुष्य दुखों के बंधन से और अज्ञान से मुक्त हो पाता है। ऐसी स्थिति में ही उसे आत्म-स्वरूप को जानने की जिज्ञासा प्रबल होती है। इसके लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन का मार्ग अपनाना चाहिए। जिसने ज्ञानाग्नि में अपनी इच्छाओं को भस्म कर दिया है तथा जो आत्म-स्वरूप में स्थित है, वही स्थितप्रज्ञ है।
विश्वकर्मा
वार्ता
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