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रक्षाबंधन के मौके पर खेली गयी अद्भुत बग्वाल

नैनीताल 15 अगस्त (वार्ता) देश गुरुवार को जहां स्वतंत्रता दिवस के पावन पर्व और भाई बहन के प्रेम के अटूट बंधन में बंधा रहा वहीं उत्तराखंड का एक हिस्सा इससे अलग पत्थरमार युद्ध बग्वाल खेलने में जुटा रहा। कुमाऊं के चंपावत में होने वाले इस अद्भुत खेल के हजारों लोग साक्षी बने। बग्वाल को देखने के लिये देश के विभिन्न कोनों से श्रद्धालु देवीधुरा पहुंचे थे।
देवीधुरा के असाड़ी कौतिक में आज बरसात के बावजूद खूब भीड़ थी। बग्वाल को देखने के लिये उत्तराखंड और अन्य राज्यों के हजारों श्रद्धालु देवीधुरा पहुंचे थे। ऐतिहासिक खोलीखांण दूबाचौड़ मैदान में सुबह से भीड़ जुटनी शुरू हो गयी थी। दोपहर तक भारी भीड़ एकत्र हो गयी। बग्वाल दोपहर 2.06 मिनट से शुरू हुई और 2.15 पर खत्म हो गयी। इस बार ऐतिहासकि बग्वाल मात्र 15 मिनट ही खेली गयी।
बग्वाल शुरू होते ही चारों खामों लमगड़िया, बालिग, गहड़वाल और चमियाल खामों के रणबांकुरों ने सबसे पहले मंदिर तथा मैदान की परिक्रमा की। इसके बाद शुरू हुआ असाड़ी कौतिक का सबसे लोकप्रिय खेल बग्वाल। दोनों ओर से पहलेपहल फलों की बरसात हुई। लोगों ने पहले पत्थरों की जगह फलों से बग्वाल की शुरूआत की। बग्वाल के लिये आयोजकों की ओर से नाशपाती की व्यवस्था की गयी थी। धीरे-धीरे बग्वाल जब अपने चरम पर पहुंची तो पत्थरों की बरसात होने लगी। दोनों ओर से आखिरी समय में पत्थर हवा में लहराने लगे। दोनों पक्ष के रणबांकुरों ने जमकर बग्वाल खेली।
मैदान में डटे कुछ रणबांकुरे इस दौरान साथ लाये छतरों की ढाल से अपनी सुरक्षा करते हुए दिखे। इस दौरान कुल 122 रणबांकुरे घायल हो गये। जिनको पास ही लगे स्वास्थ्य विभाग के कैम्प में मेडिकल सुविधा प्रदान की गयी। इस पल के गवाह अल्मोडा़-पिथौरागढ के सांसद अजय टमटा, पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी, चंपावत जिले के दोनों विधायक पूरण सिंह फर्त्याल और कैलाश गहतोड़ी के अलावा विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष गोविन्द सिंह कुंजवाल मौजूद रहे।
बग्वाल को देखने के लिये विभिन्न हिस्सों से लोगों को हुजूम यहां उमड़ा। ऐतिहासिक खोलीखाण मैदान खचाखच भरा हुआ था। हजारों श्रद्धालुआ ने मां बाराही के दर्शन किये। पंडित कीर्ति वल्लभ जोशी ने बताया कि शुक्रवार को शोभायात्रा सम्पन्न होने के साथ ही असाड़ी कौतिक का समापन हो जाएगा। पौराणिक मान्यता है कि मां काली के गणों को खुश करने के लिये यहां नर बलि की प्रथा थी। बाद में परंपरा बदली और अपनी आराध्या को खुश करने के लिये बग्वाल खेली जाने लगी। ऐसी मान्यता है कि जब तक एक आदमी के बराबर खून न गिर जाये तब तक बग्वाल खेली जाती है।
रवीन्द्र.संजय
वार्ता
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