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जलियांवाला बाग नरसंहार घटना के चश्मदीद गवाह थे सरदार जोध सिंह

अंबाला ,10 अप्रैल (वार्ता) बैशाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में घटित नरसंहार
की घटना के बारे में सुनकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं जब बिना किसी चेतावनी के खूंखार अंग्रेज कमांडर जरनल डायर ने निर्दोष लोगों को भून दिया था ।
इस घटना से तीन दिन पहले 10 अप्रैल को हिन्दुस्तानी क्रांतिकारियों के हाथों कुछ अग्रेंज
अधिकारियों को मौत के घाट उतार दिए जाने पर ब्रिटिश सरकार ने अमृतसर की
कमान जालंधर बिग्रेड के एक खूंखार कमांडर जनरल डायर को सौंप दी थी।
जनरल डायर अमृतसर की गलियों और सड़काें पर मार्च करके अपनी शक्ति प्रदर्शन करते हुए आम जनता के समक्ष घोषणाएं करवा रहा था कि कोई भी शख्स बिना अनुमति शहर से बाहर नहीं जाएगा। रात को आठ बजे के बाद यदि कोई शख्स बाहर गली अथवा बाजार में दिखाई दिया तो उसे गोली मार दी जाएगी। उसने यह भी चेतावनी दी कि एक जगह एकत्रित होकर जलसा करने वालों को बिना चेतावनी दिए गोलियों से भून दिया जाएगा।
इस तरह की घोषणाएं करते अंगेजाें के पिट्ठू अभी आगे बढ़े ही थे कि सरदार जोध सिंह तथा उनके मौसेरे भाई सोहन सिंह ने कुछ लोगों को यह बातचीत करते हुए सुना कि आज शाम चार बजे जलियांवाला बाग में आजादी के संघर्ष से जुड़ा एक जलसा होने जा रहा है। वो दोनों अमृतसर की संकरी गलियों से गुजरते हुए जलियांवाला बाग के भीतर दाखिल हो गए। लोगों का अच्छा खासा हुजूम वहां एकत्रित हो चुका था। दोनों एक जगह खड़े होकर देशभक्तों के भाषण सुनने लगे। ठीक उसी वक्त जनरल डायर अपनी फौज लेकर वहां आ धमका। उसके साथ आए पचास बदूंकधारी जवानाें ने पोजीशन लेकर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। इस तरह के कत्लेआम की कल्पना किसी ने नहीं की थी।
बिना चेतावनी जब निरीह जनता को घेर कर उस पर इस तरह गोलियां चलाई गई तो जान बचाने के लिए लोग
जिधर भी भाग सकते थे, भागे । जोध सिंह ने देखा कि उसका मौसेरा भाई सोहन सिंह भी गोली लगने से चीखते हुए नीचे गिर रहा है, जब वे उसकी मदद को आगे बढ़े तो एक गोली उनके कान के पास से दनदनाती हुई निकल गई। उन्होंने बचने के लिए समझदारी से काम लेते हुए खुद को भी सोहन सिंह के साथ नीचे गिरने दिया। उनके नीचे गिरते ही कई अन्य लोग गोलियों का शिकार होकर उन पर गिरते गए। उनमें से कुछ घायल थे और कुछ मरे हुए। चाराें ओर
हाहाकार मची हुई थी।
अगिनत लाशें खून से लथपथ इधर-उधर बिखरी पड़ी थी। अपने मौसेरे भाई के साथ लाशों के ढेर के नीचे दबे दबे सरदार जोधसिंह ने 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग में घटी इस भंयकर नरसंहार की घटना को अपनी आंखों से देखा था। इस घटना ने उस नवयुवक को एक गम्भीर आंदोलनकारी के रूप में परिवर्तित कर दिया और वे आजादी की लड़ाई में सक्रिय रूप कूद पड़े और अंग्र्रेजों के खिलाफ बगागत का बिगुल बजा दिया।
अपने जीवन के दो दशक से ज्यादा का समय तक वह जेल,गांव तथा घर में बंदी रहे। आखिर वक्त ने करवट बदली और अंग्रेजों को देश छोड़ना पड़ा और देश आजाद हुआ । केन्द्र तथा हरियाणा सरकार ने ताम्र पत्र तथा फैमिली पेंशन देकर ‘स्वन्त्रतता सेनानी’ के रूप में उन्हें सम्मानित किया।
विभाजन के बाद सरदार जोध सिंह पाकिस्तान में अपना सब कुछ छोड़कर शरणार्थी के रूप में भारत आ गए और जिला नैनीताल के हलद्वानी में कुछ समय व्यतीत करने के बाद अम्बाला शहर के पटेल रोड पर कपड़े की दुकान खोल ली जो आज भी बाबे दी हटृी के नाम से उनके बेटे त्रिचोलन सिंह द्वारा संचालित की जा रही है जिसे वे अपने पिता सरदार जोध सिंह की याद में पिछले 60 वर्षों से संचालित कर रहे हैं। वृद्ध हो जाने के कारण अब उनका बेटा कंवरजीत सिंह शैली भी उनके पदचिन्हों पर चलते हुए इस काम में उनकी मदद कर रहा है ।
सं शर्मा
वार्ता
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