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वामपंथी विचारधारा को नहीं मिला हरियाणा में कभी समर्थन

चंडीगढ़, 12 अक्तूबर(वार्ता) देश में मजदूरों और कर्मचारियों के हकों को लेकर ‘लाल झंडे को लाल सलाम‘ वाले वाम दलों को हरियाणा में लोकसभा और विधानसभा चुनावों में जनता ने कभी भी तवज्जो नहीं दी।
राज्य के वर्ष 1962 में गठन से लेकर आज तक कोई वामपंथी नेता संसद तक नहीं पहुंच पाया। विधानसभा चुनावों में अगर वर्ष 1987 के चुनावों को छोड़ दें तो वामदलों को राज्य की राजनीति में जनता का कभी समर्थन नहीं मिला। वर्ष 1987 के विधानसभा चुनावों में भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी(भाकपा) और मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी(माकपा) का एक-एक प्रत्याशी विधानसभा तक पहुंचा। इन चुनावों में भाकपा ने पांच और माकपा ने चार सीटों पर चुनाव लड़ा था लेकिन इनमें से भाकपा के शाहबाद से प्रत्याशी हरनाम सिंह और माकपा के टोहाना से प्रत्याशी हरपाल ही विधानसभा तक पहुंच पाये। हरनाम सिंह ने निर्दलीय प्रत्याशी खैराती लाल को 16701 मतों के अंतर से पराजित किया। हरनाम सिंह को 28831 वोट मिले थे। जबकि हरपाल सिंह ने कांग्रेस प्रत्याशी परमवीर सिंह को पराजित किया था। माकपा प्रत्याशी को 30261 वोट मिले थे।
राज्य में वामपंथी दलों को मजदूर और कर्मचारी संगठनों में वर्चस्व रहा है। धरने, प्रदर्शनों, हड़तालों और विभिन्न आंदाेलनों के माध्यम से सरकारों पर दबाव बनाने में भले ही इन्होंने अपने झंडे गाड़े हों लेकिन जनता ने चुनावों में इनकी विचारधारा को कभी स्वीकार नहीं किया। इन दलों ने राज्य के लोकसभा और विधानसभा चुनावों के इतिहास में कभी पूरी सीटों पर चुनाव नहीं लड़ा अलबत्ता विभिन्न सीटों पर कांग्रेस सरीखे अन्य दलों को समर्थन देने और वोट काटने भर तक ही इनकी भूमिका रही है। वर्ष 2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों तक इन दलों का राजनीतिक जनाधार काफी हद तक सिमट चुका है।
रमेश1514वार्ता
सलाम' अभी तक सपना ही है। सूबे में आज तक कोई भी वामपंथी जीत दर्ज कर संसद की दहलीज नहीं लांघ पाया। प्रदेश बनने के बाद अभी तक जितने भी लोकसभा चुनाव हुए हैं, उनमें वामदलों का मत प्रतिशत कभी दहाई के आंकड़े को नहीं छू सका। वामदल की छवि हरियाणा में वोट काटने वाली पार्टियों के तौर पर बन चुकी है। एक भी मौका ऐसा नहीं आया कि लोकसभा चुनाव में वामदलों ने मिलकर सभी दस सीटों पर प्रत्याशी उतारे हों।
माकपा और भाजपा 1967 से ही प्रदेश में दो या तीन सीटों पर चुनाव लड़ती आई हैं। अनेक चुनाव ऐसे रहे, जिनमें वामदलों ने एक ही सीट पर चुनाव लड़ा। दो-तीन बार तो पार्टियों ने आम चुनाव में प्रत्याशी ही नहीं उतारे। वामपंथी विचारधारा से प्रभावित लोग भले ही बड़ी संख्या में प्रदेश में हों, लेकिन चुनाव में उनका दमखम नहीं दिखता। माकपा और भाकपा के तो प्रदेश में बड़े स्तर पर कोई आंदोलन भी नहीं हुए। प्रदेश में वामपंथी दलों को जिंदा रखने की कमान सार्वजनिक तौर पर सर्व कर्मचारी संघ व उससे जुड़े कर्मचारी संगठनों, सीटू और जनवादी महिला समिति के हाथों में ही है।
कर्मचारियों और जनता से जुड़े मुद्दों पर यही आए दिन आंदोलन करते हैं। प्रदेश में सर्व कर्मचारी संघ से जुड़े अधिकांश बड़े नेता वामपंथी विचारधारा के हैं। इनमें सर्व कर्मचारी संघ के महासचिव सुभाष लांबा प्रमुख हैं। प्रदेश में कर्मचारी आंदोलनों की रणनीति तैयार करने का जिम्मा इन पर ही रहता है। प्रदेश में सरकार किसी की भी रही हो कर्मचारियों के मुद्दों पर सर्व कर्मचारी संघ कभी घेरने का मौका नहीं छोड़ता। यह अलग बात है कि इनके कर्मचारी संगठनों से जुड़े कर्मचारी वामपंथी दलों के लिए पूरी तरह वोट बैंक नहीं बन पाते।
इन सीटों पर लड़ा लोकसभा चुनाव, ये रहा मत प्रतिशत
. सीपीआई ने 1967 के लोकसभा चुनाव में तीन सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे। मात्र 1.70 फीसदी वोट मिले। कोई प्रत्याशी जीत नहीं पाया। झज्जर से आर. पत, गुरुग्राम से जे खान, सिरसा से डी राम ने चुनाव लड़ा था।
. सीपीएम ने 1967 में दो सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे। मात्र 0.83 फीसदी वोट मिले। झज्जर से एम. राम, गुरुग्राम से जी. सिंह ने चुनाव लड़ा था।
. 1971 में सीपीएम ने एक सीट पर चुनाव लड़ा था, केवल 0.13 प्रतिशत वोट मिले। कैथल से सुरता ने चुनावी दंगल में ताल ठोकी थी। सीपीआई ने प्रत्याशी ही नहीं उतारा।
. आपातकाल के बाद 1977 में हुए चुनाव में सीपीआई ने दो सीटों पर प्रत्याशी उतारे, मात्र 0.61 प्रतिशत वोट मिले। सीपीएम एक सीट पर चुनाव लड़ी। 0.03 वोट तक सिमट गई। सीपीआई ने कुरुक्षेत्र से हरनाम सिंह व अंबाला से देशराज को मैदान में उतारा था। सीपीएम ने फरीदाबाद सीट पर इसलाम एलियास इस्लामुद्दीन को टिकट दी थी।
. 1980 में सीपीआई और सीपीएम किसी सीट पर चुनाव नहीं लड़ी।
. 1984 में सीपीआई ने एक ही सीट पर चुनाव लड़ा व केवल 0.88 प्रतिशत वोट मिले। अंबाला सीट से देशराज को चुनाव लड़ाया गया थज्ञ।
. 1989 में भी सीपीआई ने एक ही सीट पर चुनाव मैदान प्रत्याशी उतारा। मात्र 0.25 प्रतिशत वोट मिले। करनाल से रघबीर सिंह प्रत्याशी थे।
. 1991 के चुनाव में भी वामदलों ने चुनावी दंगल में ताल नहीं ठोकी थी।
. 1996 में सीपीआई ने सिरसा सीट पर प्रकाश सिंह को प्रत्याशी बनाया था। मात्र 0.36 प्रतिशत वोट मिले।
. 1998 के चुनाव में सीपीआई ने सिरसा से जोगिंदर सिंह व सीपीएम ने हिसार में फूल सिंह श्योकंद को उतारा था। सीपीआई को 0.15 व सीपीएम को 0.34 प्रतिशत वोट मिले थे।
. 1999 में सीपीएम ने भिवानी से प्रभात सिंह को प्रत्याशी बनाया था। मात्र 0.15 प्रतिशत वोट मिले।
. 2004 में सीपीआई एमएल एल ने करनाल से महिंदर सिंह को चुनाव मैदान में उतारा। केवल 0.03 प्रतिशत वोट ही मिले थे।
. 2009 में करनाल सीट पर सीपीआई ने मान चंद को मैदान में उतारा था। उन्हें 1.68 प्रतिशत वोट मिले थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में भी वामदलों का प्रदर्शन कोई खास नहीं रहा था।
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