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जैसलमेर में सदियों से दहेज लेनदेन का रिवाज नहीं

जैसलमेर, 26 नवम्बर (वार्ता) राजस्थान का सरहदी जैसलमेर शहर भारत वर्ष में इकलौता ऐसा शहर है जहां सदियों से किसी भी समाज में शादी ब्याह में दहेज़ देने लेने की परम्परा नहीं है।
देश में इसी वजह से इस शहर की अपनी एक खास पहचान हैं। यह शहर प्राचीन काल से ही दहेज जैसी कुरीतियों से मुक्त रहा है और जैसलमेर के निवासी अब भी इस परम्परा का निर्वहन करते आ रहे हैं। यहां कहावत प्रचलित है कि लड़की दो जोड़ी कपड़ों में विदा होती है। कहते हैं कि यह परम्परा जैसलमेर राज्य में दौरान ही विभिन्न समाजों में समानता के अधिकार के तहत बनी थी। गरीब अमीर में कोई भेद नहीं था।
कहा जाता है कि इस परम्परा की शुरुआत के मूल में उस काल में कन्याओं की कमी थी, जिसकी वजह से जैसलमेर शहर से बाहरी कस्बों या नगरों में विवाह नगण्य होते थे। यह परम्परा अब भी कायम है। अपवाद छोड़ दें तो अब भी जैसलमेर में विभिन समाजों में शादियां शहर में ही होती हैं। दूसरे जिलों में लड़के या लड़की की शादियां नाममात्र की होती हैं। यही वजह है कि यहां दहेज से परहेज किया जाता है।
हालांकि अब प्रचलित रीति रिवाज के अनुसार पिता अपनी पुत्री को सामर्थ्य के अनुसार भेंट देता है, लेकिन दहेज के नाम पर शादी के वक़्त कोई भी समाज किसी तरह का उपहार नहीं देते। थानों में दहेज़ के मुकदमे नगण्य होते हैं।
जैसलमेर का यह परम्परागत रिवाज अन्य शहरों के लिए प्रेरणास्रोत है। हजूरी समाज के बुजुर्ग दीनदयाल तंवर बताते हैं कि जैसलमेर में परम्परागत रूप से दहेज नहीं देने का रिवाज है। बेटी की शादी में दहेज़ अब भी नहीं देते हैं, यही रिवाज अन्य समाजों में भी है। दहेज न लड़की वाले देते हैं न लड़के वाले कभी मांगते हैं, यह बहुत अच्छा रिवाज है। वह कहते हैं कि खुशी है कि जैसलमेर के लोग अब भी इस परम्परा पर कायम हैं।
भाटिया समाज के मनोज भाटिया कहते हैं कि शादी के वक़्त दहेज़ देने या लेने की प्रथा नहीं है, यह अलग बात है कि बाद में पिता अपनी मर्जी से बेटी को कुछ दे तो उस पर ऐतराज नहीं हैं। शादियों के तौर तरीके भले ही कितने बदल गये हों, लेकिन दहेज़ जैसी कुरीति कभी जैसलमेर में पांव नहीं पसार पायी। डॉ अशोक तंवर के बेटे अभिमन्यु तंवर की 28 नवम्बर को शादी है। उनका कहना है कि दहेज नहीं लेने देने की अपनी परम्पराओं और रीति रिवाजों को हम ज़िंदा रखे हैं यही हमारी पहचान है।
भाटी सुनील
वार्ता
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