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राज्य » उत्तर प्रदेश


आजादी से पहले ब्रिटिश शासन काल में वनटांगिया लोग जंगल लगाने का काम करते थे और इनकी स्थिति लगभग बंधुआ मजदूरों जैसी थी। इन्हें वनटांगिया मजदूर इसीलिए कहा जाता है क्योंकि ये टांगिया पद्धति से जंगल लगाया करते थे। भारत में टांगिया पद्धति से जंगल लगाने की शुरुआत वर्ष 1918 में हुई थी। भारत में रेलवे का विस्तार किया जा रहा था और पटरियां बिछाने के लिए साखू की लकड़ियों की बड़े पैमाने पर ज़रूरत पड़ने लगी। नतीजा ये हुआ कि साखू के जंगल खत्म होने लगे। उस समय अंग्रेजी सरकार ने बड़े पैमाने पर साल या साखू के जंगल लगाने का फैसला किया और इसके लिए अंग्रेजों ने बर्मा (म्यांमार) की टांगिया पद्धति अपनाई। उस वक्त वन विभाग के कुछ अधिकारी बर्मा गए और वहां जाकर खेती करने की टांगिया पद्धति सीखी। वापस भारत आकर उन्होंने गरीब और मजदूर तबके के लोगों को टांगिया पद्धति का प्रशिक्षण दिया और भारी तादाद में कामगारों को जंगल उगाने में लगा दिया। टांगिया पद्धति से वन उगाने वाले इन मजदूरों को वनटांगिया कहा गया।
टांगिया पद्धति में मजदूरों का जत्था बनाकर अलग-अलग स्थानों पर अस्थाई रूप से बसाया जाता था। वनटांगिया मजदूरों के एक समूह के जिम्मे 30 हेक्टेयर ज़मीन आती थी और पांच साल तक मजदूरों को इसी जमीन पर काम करना होता था। जून-जुलाई के महीने में वन विभाग ज़मीन की प्लॉटिंग करता था। मजदूर इन ज़मीनों पर साखू के पौधे लगाया करते थे। पौधे लगाने के बाद उन्हें पौधों की पांच साल तक देखभाल करनी होती थी। इसके लिए मजदूर उस स्थान के आस-पास ही रहते थे। पौधों के बीच की ज़मीन वनटांगिया मजदूरों को खेती के लिए मिलती थी। इसमें भी उन्हें एक ही फसल लगाने की इजाज़त मिलती थी। बस्ती से कोसों दूर इनके पास कोई सुविधाएं नहीं होती थीं। इन्हें जानवरों से अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा करनी होती थी और फसल के रखरखाव की जिम्मेदारी भी इन्हीं की होती थी। पांच साल में जब साखू के पौधे मौसमी हालात का सामना करने के लिए तैयार हो जाते थे तब वनटांगिया मजदूरों को नयी ज़मीनों पर नए सिलसिले की शुरुआत के लिए भेज दिया जाता था। फिर अगले पांच साल तक के लिए ये मजदूर किसी एक ज़मीन के टुक़डे से बंध जाते थे। ये एक तरह की बंधुआ मजदूरी थी।
सत्या.श्रवण
जारी वार्ता
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