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कुम्भ-नागा दीक्षा चार अन्तिम कुम्भनगर

जूना अखाड़ा के थानपति धर्मेन्द्र पुरी ने बताया नागा साधुओं को सामान्य दुनिया से हटकर बनना पड़ता है इसलिए जब भी कोई व्यक्ति नागा बनने के लिए अखाड़े में जाता है तो उसे विशेष प्रकार की परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। जिस अखाड़े में वह जाता है, उस अखाड़े के प्रबंधक पहले उसकी जांच पड़ताल करते हैं कि व्यक्ति नागा क्यों बनना चाहता है। व्यक्ति की पूरी पृष्ठभूमि देखने और उसके मंतव्यों को जांचने के बाद ही उसे अखाड़े में शामिल किया जाता है।
गुरु के अपने शिष्य की योग्यता पर भरोसा होने के बाद उसे अगली प्रक्रिया में शामिल किया जाता है। यह अगली प्रक्रिया कुंभ के दौरान शुरू होती है जब व्यक्ति को संन्यासी से महापुरुष बनाया जाता है। इनकी तैयारी किसी सेना में शामिल होने जा रहे व्यक्ति से कम नहीं होती।
अखाड़ों के आचार्य अवधूत बनाने के लिए सबसे पहले महापुरुष बन चुके साधु का जनेऊ संस्कार करते हैं और उसके बाद उसे संन्यासी जीवन की शपथ दिलवाई जाती है। इस दौरान नागा बनने के लिए तैयार व्यक्ति से उसके परिवार और स्वयं उसका पिंडदान करवाया जाता है। इसके बाद बारी आती है दंडी संस्कार की और फिर होता है पूरी रात ओं नम: शिवाय का जाप किया जाता है।
उन्होंने बताया कि रात भर चले जाप के बाद, भोर होते ही व्यक्ति को अखाड़े ले जाकर उससे विजया हवन करवाया जाता है और फिर गंगा में 108 डुबकियों का स्नान होता है। गंगा में डुबकियां लगवाने के बाद उससे अखाड़े के ध्वज के नीचे दंडी त्याग करवाया जाता है।
नागा साधु बनने के बाद वे अपने शरीर पर भभूत की चादर चढ़ा लेते हैं। यह भस्म या भभूत बहुत लंबी प्रक्रिया के बाद तैयार की जाती है। किसी मुर्दे की राख को शुद्ध करके उसे शरीर पर मला जाता है या फिर हवन या धुनी की राख से शरीर ढका जाता है।
एक अन्य नागा ने अपनी पहचान छुपाते हुए बताया कि अगर मुर्दे की राख उपलब्ध नहीं है तो हवन कुंड में पीपल, पाखड़, सरसाला, केला और गाय के गोबर को जलाकर उस राख को एक कपड़े से छानकर दूध की सहायता से लड्डू बनाए जाते हैं। इन लड्डुओं को सात बार अग्नि में तपाकर उसे फिर कच्चे दूध से बुझा दिया जाता है। जिसे समय-समय पर नागा अपने शरीर पर लगाते हैं। यही भस्म उनके वस्त्र होते हैं।
दिनेश
वार्ता
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