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फीचर फिराक साधना तीन अंतिम गोरखपुर

फिराक साहब ने उर्दू साहित्य को उस जगह लाकर खडा कर दिया जहां दुनिया की दूसरे भाषाओं से वह काफी आगे नजर आता है। वह आवाज जिसमें एक जादू था खामोश हो गयी लेकिन फिराक ने जिस आवाज को मर मर कर पाला था
वह आवाज आज भी साहित्य की दुनिया में सुनायी दे रही है।
मैने इस आवाज को मर मर कर पाला है फिराक
आज जिसकी नर्म लौ है शमेय मेहरावें हैयात।
फिराक साहब को साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में वर्ष 1970 में पद्मभूषण, गुल-ए-लगमा के लिए साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ एवं सोवियत लैंड नेहरू सहित कई पुरस्कारो से भी नवाजा गया था। फिराक साहब 1970 में साहित्य अकादमी के सदस्य भी नामित हुए थे।
फिराक गोरखपुरी की साद में प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से आयोजित आज यहां हवचार गोष्ठी में अतंराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति विभूति नारायण राय ने कहा कि फिराक गोरखपुरी हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों के सेतु थे। गुलामी से लेकर आजादी तक उन्होंने अपनी लेखनी से गंगा-जमुनी तहलीब को जो विरासत सौंपी उस पर देशवासियों को नाज है। दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष अनिल राय ने कहा कि फिराक ने अपने समय में जो भी लिखा उसमें उस समय की विसंगतियों के खिलाफ प्रतिरोध दिखता है।
उन्होंने कहा कि आज के दौर में लेखकों के सामने विसंगतियों का संकट है जिससे लडना उनका दायित्व है। उन्होंने कहा कि फिराक की रचनायें इस लडायी में लेखकों का मार्गदर्शन कर सकती है।
उदय प्रदीप
वार्ता
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