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लोकरूचि-श्राद्ध महिला चार अंतिम प्रयागराज

डा गौतम ने बताया कि व्रह़्म वैवर्त पुराण के अनुसार देवताओं को प्रसन्न करने से पहले मनुष्य को अपने पितरों को प्रसन्न करना चाहिए। हिन्दू ज्योतिष के अनुसार पितृ दोष को सबसे जटिल कुंडली दोषों में से एक माना जाता है। पितरों की शांति के लिए प्रत्येक वर्ष भद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से अश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक के काल को पितृपक्ष होता है।
मान्यता है कि इस दौरान कुछ समय के लिए यमराज पितरों को आजाद कर देते है ताकि वह अपने परिजनों से श्राद्ध ग्रहण कर सकें।
पितरों के निमित्त सारी क्रियाएं गले में दाएं कंधे मे जनेऊ डाल कर और दक्षिण की ओर मुख करके की जाती है। .श्राद्ध का समय हमेशा जब सूर्य की छाया पैरो पर पड़ने लग जाए अर्थात मध्यान्ह के बाद ही शास्त्र सम्मत है। सुबह-सुबह अथवा 12 बजे से पहले किया गया श्राद्ध पितरों तक नही पहुंचता है। यह रस्म अदायगी मात्र है।
उन्होंने बताया कि कौए को पितरों का रूप माना जाता है। मान्यता है कि श्राद्ध ग्रहण करने के लिए हमारे पितर कौए का रूप धारण कर नियत समय पर घर पर आते हैं। अगर उन्हें श्राद्ध नहीं मिलता है तो वह रूष्ट हो जाते है और श्राप देकर चले जाते है। इसलिए श्राद्ध का प्रथम अंश कौओं के लिए निकाला जाता है।
आचार्य गौतम ने बताया कि माता का श्राद्ध नवमी को किया जाता है। जिन परिजनों की अकाल मृत्यु हो उनका श्राद्ध चतुर्दशी को किया जाता है। साधु और सन्यासियों का श्राद्ध द्वादशी को और जिन पितरों की मृत्यु की तिथि ज्ञात नहीं होती उनका अमावस्या के दिन श्राद्ध किया जाता है। इस दिन को ही सर्व पितृ श्राद्ध कहा गया है।
उन्होंने बताया ऊर्ध्व भाग पर रह रहे पितरों के लिए कृष्ण पक्ष उत्तम होता है। कृष्ण पक्ष की अष्टमी को उनके दिनों का उदय होता है। अमावस्या उनका मध्याह्न है तथा शुक्ल पक्ष की अष्टमी अंतिम दिन होता है। धार्मिक मान्यता है कि अमावस्या को किया गया श्राद्ध, तर्पण, पिंडदान उन्हें संतुष्टि एवं ऊर्जा प्रदान करते हैं।
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार पृथ्वी लोक में देवता उत्तर गोल में विचरण करते हैं और दक्षिण गोल भाद्रपद मास की पूर्णिमा को चंद्रलोक के साथ-साथ पृथ्वी के नज़दीक से गुजरता है। इस मास की प्रतीक्षा हमारे पूर्वज पूरे वर्ष भर करते हैं। वे चंद्रलोक के माध्यम से दक्षिण दिशा में अपनी मृत्यु तिथि पर अपने घर के दरवाज़े पर पहुँच जाते है और वहाँ अपना
सम्मान पाकर प्रसन्नतापूर्वक अपनी नई पीढ़ी को आर्शीवाद देकर चले जाते हैं। ऐसा वर्णन 'श्राद्ध मीमांसा' में मिलता है। इस तरह पितृ ॠण से मुक्त होने के लिए श्राद्ध काल में पितरों का तर्पण और पूजन किया जाता है।
भारतीय संस्कृति एवं समाज में अपने पूर्वजों एवं दिवंगत माता-पिता के स्मरण श्राद्ध पक्ष में करके उनके प्रति असीम श्रद्धा के साथ तर्पण, पिंडदान, यक्ष तथा ब्राह्मणों के लिए भोजन का प्रावधान किया गया है। पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध दो तिथियों पर किए जाते हैं। प्रथम मृत्यु या क्षय तिथि पर और दूसरा पितृ पक्ष में। जिस मास और
तिथि को पितृ की मृत्यु हुई है अथवा जिस तिथि को उनका दाह संस्कार हुआ है, वर्ष में उम्र उस तिथि को एकोदिष्ट श्राद्ध किया जाता है।
आचार्य गौतम ने बताया कि एकोदिष्ट श्राद्ध में केवल एक पितर की संतुष्टि के लिए श्राद्ध किया जाता है। इसमें एक पिण्ड का दान और एक ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है। यदि किसी को अपने पूर्वजों की मृत्यु की तिथियाँ याद नहीं है, तो वह अमावस्या के दिन ज्ञात-अज्ञात पूर्वजों का विधि-विधान से पिंडदान तर्पण, श्राद्ध कर सकता है। इस दिन किया गया तर्पण करके 15 दिन के बराबर का पुण्य फल मिलता है और घर परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में विशेष उन्नति होती है।
उन्होंने बताया कि यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हुई है, तो पितृदोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्मशांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करना चाहिए। सामर्थ्यनुसार किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ ब्राह्मण से श्रीमद् भागवत पुराण की कथा अपने पितरों की आत्मशांति के लिए करवा सकते हैं। इससे विशेष पुण्य फल की प्राप्ति होती है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति, वंश वृद्धि में रुकावट, आकस्मिक बीमारी, धन से बरकत न होना सारी सुख सुविधाओं के होते भी मन असंतुष्ट रहना आदि परेशानियों से मुक्ति मिलती है।
दिनेश प्रदीप
वार्ता
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