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लोकरूचि-रामलीला अकबर दो प्रयागराज

वरिष्ठ रंगकर्मी और इलाहाबाद विश्विवद्यालय के लेखा विभाग में कार्यरत श्री सुधीर कुमार ने बताया कि रामलीला देखने से आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र के हृदय से रामलीला गान की उत्कंठा जगी। परिणामत: हिंदी साहित्य को “रामलीला” नामक चंपू की रचना मिली। गद्य-पद्य के मिश्रित काव्य को चम्पू कहते हैं।
श्री कुमार ने बताया कि पहले रामलीला महर्षि वाल्मीकि के महाकाव्य ‘रामायण’ की पौराणिक कथा पर आधारित था, लेकिन आज जिस रामलीला का मंचन किया जाता है, उसकी पटकथा गोस्वामी तुलसीदास रचित महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ की कहानी और संवादों पर आधारित है।
वरिष्ठ रंगकर्मी ने बताया कि इलाहाबाद में रामलीला की शुरुआत कब से हुई इसका सही सही उल्लेख नहीं मिलता, मान्यताओं के अनुसार सन 1531 में गोस्वामी तुलसी दास ने श्री रामचरित मानस की रचना की तभी से काशी के
निवासियों ने लीला की मंचन प्रारंभ किया। उन्हीं की प्रेरणा से बाद में इलाहाबाद स्थित रामानुजाचार्य मठ, जो वर्तमान में बादशाही मण्डी के पास है,में भी रामलीला का मंचन आरम्भ हुआ।
सन 1914 तक इलाहाबाद में बिजली उपलब्ध नहीं थी जिसके कारण मशाल और पेट्रोमेक्स की रोशनी में ही सभी कार्यक्रम हुआ करते थे। 1915 में इलाहाबाद में बिजली की आपूर्ति आरम्भ हुयी तो आयोजनों में जैसे क्रान्ति
आ गयी। आस्था के साथ ही अब दशहरा पर्व में चमक-दमक भी आ गयी। चौकियों, रामलीला मैदानों और सड़कों पर विद्युत प्रकाश की सजावट से जो चकाचौंध पैदा हुई, इस पर्व की न सिर्फ इलाहाबाद बल्कि दूर-दूर तक ख्याति फैला दी।
पहले जहां सूर्यास्त होने के पहले ही भगवान राम लक्ष्मण और सीता की सवारी निकल जाती थी अब यह सवारी लकदक लाइटों के बीच मध्यरात्रि को निकलनी आरम्भ हो गयी।
दिनेश प्रदीप
जारी वार्ता
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