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लोकरूचि-बैलगाड़ी लुप्त दो प्रयागराज

प्रयागराज के फूलपुर क्षेत्र के इस्माइलगंज, पूरे महारत और बरई टोला मुहल्ले में 15 से 20 परिवार लोहारी का काम करते हैं। उनका कहना है कि बैलगाड़ी पर लोहे का शाम ढ़ालने और उसका पहिया बनाना गुजरे जमाने की बात लगती है। गांवों में बैलगाड़ी की जगह ट्रैक्टरों ने ले लिया है। इससे हम लोगों का कोई मतलब नहीं है। पहले हर गांव में किसानों के पास अपनी बैलगाड़ी होती थी। हमें बराबर काम मिलता रहता था और रोजी-रोटी भी आसानी से चलती थी।
बरई टोला निवासी भूखन और भोला दोनो भाइयों का कहना है कि कल तक गांवों के कच्चे, ऊबड़ खाबड़ और टेढ़े रास्ते पर बैलों के कंधों के सहारे चलने वाली बैलगाड़ी की महत्ता को ट्रैक्टर की तुलना में कमतर नहीं आंका जाना चाहिए। प्राचीन समय में आस-पास आवागमन का यही एक महत्वपूर्ण साधन था।
भोला ने बताया कि बैलगाड़ी के पहिया पर शाम ढ़ालने के लिए भट्टी हमेशा दहकती थी और हथैड़े की चोट लगातार पड़ती रहती थी। कभी पहिया मरम्मत, जुआ कभी हल तो कभी अन्य काम से फुरसत नहीं मिलती थी। बैलगाड़ी का
पहिया तैयार करने में कई हप्ते लग जाते थे। लेकिन अब यह अतीत की बात हो गयी।
उन्होने बताया कि मशीनीकरण ने बैलगाड़ी बनाने वाले कारगरों की रोजी भी छीन ली। दिन प्रति दिन घटते पेड़ो के कारण मंहगी होती लकड़ी ने भी कारीगरों को बैलगाड़ी बनाने से मुंह मोड़ने को विवश कर दिया। काष्ठ कारीगर बैलगाड़ी निर्माण की कला पर ध्यान देना छोड़कर अन्य प्रकार की लुहारी के कार्य में रत हो गये।
दिनेश प्रदीप
जारी वार्ता
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