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लोकरूचि-बैलगाड़ी लुप्त तीन अंतिम प्रयागराज

सबसे अगाड़ी हमार बैलगाड़ी कह हांकने वाले प्रयागराज के फूलपुर निवासी वृद्ध ग्रामीण किसान धंसी आंखें और झुर्रियों वाले चेहरा लिये बाबू महतो दु:ख भरे शब्दों में कहते हैं “ ट्रैक्टर को गांव के लीक पर दौड़ते और खेत में चलते देख के ऐसा लगता है कि हमार धरती माई का करेजा चीरत जाइत है। एकरा के देख के हमार करेजा फटत है बाबू।” यह कराह मात्र एक किसान की ही जुबानी नहीं बल्कि मशीनीकरण की मार से पीड़ा सह रहे हजारों किसानों के आक्रोश की उपज है।
उन्होने बताया कि प्राचीनकाल से लेकर हाल के वर्षों तक गांव से शहरों की मंडियों और हाट, बाजारों में अनाज पहुंचाने, गांव के ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों पर सवारियों ढ़ाेने, विवाह में बारात ले जाने, गृहस्थी संबंधी सामानों की ढुलाई करने और खेतेों के बेतरतीब रास्तों पर चलने वाली ग्रामीण संस्कृति में रची बसी बैलगाड़ी का कोई विकल्प नहीं था।
श्री महतो का कहना है कि ग्रामीण संस्कृति से जुड़ी बैलगाड़ी पुरखों की सफलता और वैज्ञानिक सोच की ओर इंगित करती है। बगैर इंधन एवं पुर्जे के चलने वाली बैलगाड़ी गांव के लिए सर्वोत्तम एवं सुलभ परिवहन व्यवस्था थी।
इसके लकड़ी के बने पहिए को घिसाव से बचाने के लिए लोहे का ढ़ाल चढ़ा होता था जो वर्षों तक सुरक्षित रखता था। पहिये और धुरी के बीच की रगड को कम करने के लिए पटसन एवं कपडे को लपेट कर उनके ऊपर से पहिया चढ़ाया जाता था। सरलता से चलने के लिए इसकी धुरी में नियमित अरंड़ी का तेल डाला जाता था जिससे बैलों को इसे खींचने में आसानी होती थी।
वर्तमान स्थिति में किसी भी राष्ट्रीय कृत बैंक, ग्रामीण बैंक अथवा निजी वित्तीय संस्थानों के पास दुधारू पशु को छोड़कर बैलों एवं बैलगाडी के लिए ऋण स्वरूप वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने की कोई योजना नहीं है। यांत्रिक वाहनों के लिए यें संस्थान धडल्ले से वित्तीय संसाधन ऋण उपलब्ध करवाते हैं। बैंक भी ट्रैक्टरों की खरीद के लिए अनुदान देती है, लेकिन असहाय गरीब किसान के लिए सस्ते एवं सुलभ वाहन बैलगाड़ी के लिए न तो कोई अनुदान और न ही वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने की कोशिश कर रही है।
उन्होने बताया कि मशीनीकरण के इस युग में बड़े जोत वाले किसानों ने ट्रैक्टरों को अंगीकार कर लिया, वहीं सीमांत एवं लघु किसान इस व्यवस्था के आगे नहीं टिकने के कारण नतमस्तक हो हल-बैल को त्यागकर भाड़े पर मशीनी वाहन से खेती कराने पर मजबूर हो गये। ट्रैक्टर के पहियों तले कुचलकर धरती भी आहत हुई। इसके लंबे फार जमीन में गहराई तक घुस कर मिट्टी को भुरभुरा बनाये रखने वाले केंचुए को भी नष्ट करते हैं।
बैलगाड़ी की ग्रामीण व्यवस्था को निगलने में सहायक बनी है मंहगायी की आयातित व्यवस्था। पशुधन की कमी से उत्पन्न स्थिति का भरपूर लाभ मशीनी व्यवस्था (ट्रैक्टर) ने उठाया। इस व्यवस्था ने ग्रामीण लीकों को रौंदने के बाद खेतों को रौंदने का काम शुरू कर दिया। मशीनीकरण की इस दौर ने हजारों हाथों से रोजगार छीन लिये। बेरोजगार होने से ग्रामीण कृषक वर्ग ने मजदूर की शक्ल अख्तियार कर नगरों की ओर पलायन करना शुरू कर दिया जिससे खेती उत्तरोत्तर घाटे का सौदा साबित होने लगा।
दिनेश प्रदीप
वार्ता
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