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समृद्धि का प्रकाश फैलाने वाले कुम्हारों के घरों में विपन्नता का अंधेरा

प्रयागराज, 22 अक्टूबर (वार्ता) रोशनी के त्योहार दीवाली पर दूसरों के घरों में ज्ञान और समृद्धि का प्रकाश फैलाने वाले कुम्हार आधुनिकता के इस दौर में भी अज्ञानता और विपन्नता के अंधियारे में जीवन बसर करने को मजबूर है।
दीपाें के पर्व दीपावली और मिट्टी के दियों का चोली दामन का साथ है हालांकि चाइनीज सस्ती झालरों ने टिमटिमाते दियों की जगह ले ली है और लोगबाग सिर्फ परम्परा निभाने की खातिर चंद दिये प्रज्जवलित करते हैं। पुश्तों से यही काम करने वाले कुम्हार दीवाली के पहले उदास और मायूस दिखते हैं। शहर के बलुआघाट, कीड़गंज, मुडेरा, तेलियरगंज, फाफामऊ जैसे शहर के अन्य क्षेत्रों में फैले करीब 800 परिवार हैं। पहले इनकी संख्या 1500 से करीब थी थी लेकिन रोजी रोटी के लिए बड़ी संख्या वाले परिवारों ने अपने पैतृक व्यवसाय से तौबा कर लिया।
फाफामऊ, तेलियरगंज और कीडगंज निवासी हरखु राम, धनसुखलाल प्रजापति, रधई और कलुआ का कहना है कि वह बड़ी मेहनत करके मिट्टी के बरतन, गुल्लक और दीये आदि बनाते हैं। मिट्टी और अन्य सामानों के मूल्यों में इजाफा होने के कारण उपभोक़्ताओं से उन्हें उनके परिश्रम का उचित लाभ भी नहीं मिल पाता है। आधुनिकता की दौड़ में लोग कुम्हारों द्वारा बनाए गए मिट्टी के सामानों को खरीदने को प्राथमिकता नहीं देते जिसके कारण परिवार में विपन्नता हमेशा विद्यमान रहती है।
फाफामऊ निवासी रधई प्रजापति का कहना है कि आलीशान बंगलों पर सजी चाइनीज लड़ियां बेशक लोगों के मन को लुभाती हों, लेकिन इन बंगलों के नीचे भारतीय परंपरा को निभाते आ रहे कुंभकारों की माटी दबी पड़ी है। ढाई से तीन हजार रुपए में चिकनी मिट्टी ट्राली खरीदकर दिए बनाकर कुम्हार मुनाफा नहीं कमा रहा, बल्कि अपनी संस्कृति, रीति-रिवाज को जीवंत रखने का प्रयास कर रहा है। आज से 10-15 पंद्रह वर्ष पहले जहां कुम्हारों को आस-पास की जगह से ही दिए बनाने के लिए चिकनी मिट्टी आसानी से फ्री में उपलब्ध हो जाती थी, वहीं अब इस मिट्टी की मोटी कीमत चुकानी पड़ती है। वहीं इस मिट्टी से तैयार एक 2 रुपए के दीपक को खरीदते समय लोग मोल-भाव भी करना नहीं भूलते।
दिनेश प्रदीप
जारी वार्ता
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