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प्रशासन के इंतजाम के कारण कार सेवा चुनौती थी

सुलतानपुर, 04 अगस्त (वार्ता)। श्रीराम मंदिर मुक्ति आंदोलन के दौरान अनेक भूमिकाओं का निर्वहन कर चुके मथुरा प्रसाद सिंह 'जटायु' का आज उन क्षणों को याद कर रोम रोम पुलकित हो जाता है। वो कहते हैं कि तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह का घोषणा कि 'अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार सकता' रामभक्तों के लिए चुनौती बन गयी थी।
सुलतानपुर जिले के कादीपुर के मूल निवासी साहित्यकार मथुरा प्रसाद सिंह 'जटायु' मंदिर आंदोलन का हिस्सा रहे। उन्हे आज भी उस संघर्ष का एक-एक पल याद है। बहुप्रतीक्षित सफलता की घड़ियों में श्रीराम जन्मभूमि के भूमिपूजन कार्यक्रम का दीदार करने को उनकी आंखें तरस रही हैं किंतु आसन्न महामारी के चलते जारी किये गये प्रतिबंध का अनुपालन करते हुए घर पर बैठ कर लाइव टेलीकास्ट देखकर ही संतुष्ट हो जाने को विवश हैं।
मंगलवार को इस सम्बंध में अपनी बातें साझा करते हुए जटायु ने 'यूनीवार्ता' से कहा कि राम मंदिर निर्माण को लेकर हुये सबसे बड़े जनांदोलन के समय वह विश्व हिन्दू परिषद के कादीपुर तहसील ईकाई का कोषाध्यक्ष थे। उस दौरान बच्चे काफी छोटे थे, किराये के मकान में रहता था। सरकारी नौकरी थी लेकिन आन्दोलन का जुनून था। अनेक बार पुलिस की छापामारी में बचे। भूमिगत रहते हुए परिषद के निर्देशानुसार नियत समय पर बलिदानी कारसेवकों का जत्था लेकर वह कादीपुर से पैदल ही अयोध्या की तरफ कूच कर गये ।
वे बताते हैं कि उस समय हर कारसेवक मुलायम सरकार की 'परिंदा भी पर नहीं मार सकता' की गर्वोक्ति की चुनौती को स्वीकार कर रामलला की मुक्ति हेतु प्राण न्यौछावर करने को आतुर था। चारों ओर नाकेबंदी, बैरीकेटिंग, सवारियों की आवाजाही पर रोक थी । हर बाजार में अस्थाई जेल बनी थी। ऐसे में पगडंडियों पर चलकर झाड़-झंखाड़ पार करते हुए रास्ते में पड़ने वाले गांव वालों की आवभगत स्वीकार करते हुए हम आगे बढ़ते जा रहे थे।
एक पतली मेड़ पर चलते समय फिसल कर गिर जाने से मेरे बायें पैर में मोच आ गई लेकिन चलता रहा । शाम को एक श्रद्धालु के घर वालों ने हल्दी प्याज के गर्म लेप के साथ पट्टी बांधी तो कुछ आराम हुआ। उन्हीं लोगों ने बांस के एक डंडे का प्रबंध किया और उसी डण्डे से ठेंगता हुआ मैं सबको साथ लेकर कारसेवा स्थल पर पहुंच गया।
30 अक्टूबर 1990 के उस दिन अयोध्या में लाठीचार्ज का आदेश हुआ , भगदड़ मची ,भीड़ तितर-बितर होने लगी। मैं भागने में असमर्थ था अचानक प्रतापगढ़ के एक कारसेवक ने मेरा हाथ खींचकर एक मकान के बरामदे के कोने में खड़ा कर छुपा दिया। प्रभु की कृपा से पुलिस वालों की निगाह मुझ पर नहीं पड़ी। मैं वहीं से अपनी नंगी आंखों से कारसेवकों को लहूलुहान होते मृत्यु का ताण्डव देखता रहा। गोलियों की तड़तड़ाहट के बीच उत्तेजित पुलिस बल और आक्रोशित भीड़ जब आगे बढ़ गई तो मैं चुपके से निकलकर बचते बचाते महंत नृत्यगोपाल दास के आश्रम पर पहुंचा।
तब तक शहीद कारसेवकों के शव भी आ चुके थे। भीगी पलकों से उन्हें श्रद्धांजलि दी गई और हम लोगों को संगठन द्वारा सकुशल घर वापस लौटने का निर्देश दिया गया ।
सं विनोद
वार्ता
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