राज्य » उत्तर प्रदेशPosted at: Aug 9 2020 1:06PM लोकरूचि लोकसंगीत लुप्त दो अंतिम झांसीडा अवस्थी ने बताया कि महर्षि व्यास, जनकवि ईसुरी, पद्माकर भूषण, मतिराम, केशव, तुलसी, बिहारी ,लक्ष्मीबाई, नाना, आल्हा और ऊदल की जन्मस्थली का गौरव पाने वाले बुंदेलखंड में लोकविधाओं के माध्यम से कभी संस्कार गीत, तो कभी श्रम गीत या ऋतुगीत गाकर भाईचारे का संदेश दिया जाता था। जनकवि ईसुरी ने अपनी रचनाओं बसंत के गीतों को गांव में खेत खलिहान मे लिखा । सावन आते ही बुंदेलखंड में लोकगायन ,वादन और नृत्य जैसी कलाएं जैसे चहकने लगती थीं। सावन में प्रकृति अपनी खुशी का इजहार करती थीं वही यहां पर लोग आल्हा ,कजली और झूला जैसे न जाने कितनी लोकशैलियों में अपनी प्रसन्नता का इजहार करते थे। उन्होने बताया कि पहले गांव में लोग एकत्र होकर बच्चे बूढ़े और जवान लोक वाद्य यंत्रों की मदद से लोकगीत और नृत्य किया करते थे और इस तरह लोकसंगीत भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढी पर आसानी से चला जाता था। हर आयुवर्ग का व्यक्ति इस जश्न में शामिल होता था। बुंदेलखंड आल्हा और ऊदल जैसे वीरों का क्षेत्र है और दिल्ली नरेश पृथ्वीराज सिंह चौहान के साथ उनकी लडाइयों की गौरव गाथा आज भी यहां की हवाओं में गूंजती है। वीररस से भरी इन कथाओं का गायन जब यहां के लोग पूरे जोश से करते हैं तो बच्चे बच्चे में वीरता,शौर्य और मातृभूमि के लिए सब कुछ न्योछावर करने जैसी भावनाएं बलवती होती हैं। लोक कलाएं हर वर्ग के लोगों को आकर्षित और प्रभावित करतीं हैं इनमें न तो विषयों की कमी होती है और न ही कथ्य की। जनकवि ईसुरी की प्रेम , श्रृंगार ,करूणा, सहानुभूति और हृदय की कसक जैसी भावनाओंं से भरी फाग जब सावन में पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ सामूहिक रूप से गायी जाती हैं तो पूरी प्रकृति मानों झूमने लगती है । धान और दूसरी फसलों की बुवाई के समय भी लोग फसल को लोकगीत सुनाते हैं संगीत का सकारात्मक असर खेती पर भी बडा सकारात्मक होता है। इंसान से लेकर फसल तक अपना सकारात्मक प्रभाव छोड़ने वाले लोककलाएं अब बुंदेलखंड में भी शांत हाेती जा रहीं हैं। सावन के मौसम में शबाब पर आने वाली यह परंपरांए मानसून के कमजोर होने से कमजोर होती है। मानसून तो हो सकता है कि अगले साल अच्छा हो जाए लेकिन जिस तरह इस क्षेत्र से पलायन हो रहा है और लोगों में अपनी संस्कृति और परंपराओं से दूर जाने की प्रवृति बलवती हो रही है तो संभव है के यह लोककलाएं भी यूं ही दम तोड़ दें। डॉ़ अवस्थी ने कहा कि कोरोना काल में सावन की मौज मस्ती भी प्रभावित हुई है। यहां अब कुछ ही लोगों के बीच होने वाले सामूहिक गायन वादन की परंपरा पर भी इस महामारी का असर साफ नजर आ है। गांवों में झूले नहीं पड़े, कजलियां नहीं निकाली गयी और लोगों के बीच सामूहिकता की भावना कमजोर हुई ऐसे में समाज को जोड़ने वाली इन लोकपरंपराओं को सहेजने की बहुत अधिक आवश्यकता है। यह सरकार का काम नहीं है आम लोगों को ही अपनी परंपराओं को सहेजने का प्रयास करना होगा अन्यथा सामाजिक ताने बाने पर इसका गंभीर प्रभाव होगा। सोनिया प्रदीपवार्ता