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उत्तर प्रदेश कोरोना रामलीला दो अन्तिम इटावा

इटावा की रामलीला का इतिहास करीब 164 वर्ष पुराना है और ये खुले मैदान में होती है। यहाॅ रावण की आरती उतारी जाती है और उसकी पूजा होती है। हालाँकि ये परंपरा दक्षिण भारत की है लेकिन फिर भी उत्तर भारत के कस्बे जसवंतनगर ने इसे खुद में क्यों समेटा हुआ है ये अपने आप में ही एक अनोखा प्रश्न है। जानकार बताते है कि रामलीला की शुरुआत यहाॅ 1855 मे हुई थी लेकिन 1857 के गदर ने इसको रोका फिर 1859 से यह लगातार जारी है।
विश्व धरोहर में शामिल जमीनी रामलीला के पात्रों से लेकर उनकी वेशभूषा तक सभी के लिए आकर्षक का केन्द्र होती है । भाव भंगिमाओ के साथ प्रदर्शित होने वाली देश की एकमात्र अनूठी रामलीला में कलाकारों द्वारा पहने जाने वाले मुखौटे प्राचीन तथा देखने में अत्यंत आकर्षक प्रतीत होते हैं । इनमें रावण का मुखौटा सबसे बड़ा होता है तथा उसमें दस सिर जुड़े होते हैं । ये मुखौटे विभिन्न धातुओं के बने होते हैं तथा इन्हें लगा कर पात्र मैदान में युद्ध लीला का प्रदर्शन करते है । इनकी विशेष बात यह है कि इन्हें धातुओं से निर्मित किया जाता है तथा इनको प्राकृतिक रंगों से रंगा गया है। सैकड़ों वर्षों बाद भी इनकी चमक और इनका आकर्षण लोगों को आकर्षित करता है।
दुनिया भर मे जहां-जहां रामलीलाएं होती है, इस तरह की रामलीला कहीं भर भी नही होती है। इसी कारण साल 2010 मे यूनेस्को की ओर से रामलीलाओ के बारे जारी की गई रिर्पोट मे भी इस रामलीला को जगह दी जा चुकी है । 164 साल से अधिक का वक्त बीत चुकी इस रामलीला का आयोजन दक्षिण भारतीय तर्ज पर मुखोटो को लगाकर खुले मैदान मे किया जाता है । त्रिनिदाद की शोधार्थी इंद्राणी रामप्रसाद करीब 400 से अधिक रामलीलाओ पर शोध कर चुकी हैं लेकिन उनको जसवंतनगर जैसी होने वाली रामलीला कही पर भी देखने को नही मिली है
देश भर की रामलीलाओ के मुकाबले जसवंतनगर की रामलीला बिल्कुल ही जुदा मानी जाती है । इसके जुदा होने के पीछे रामलीला के कूरर लेकिन सबसे अहम पात्र रावण का रक्षक की भूमिका मे खडा होना। रावण की ना केवल पूजा की जाती है बल्कि पूरे शहर भर मे रावण की आरती उतारी जाती है। इतना ही नही रावण के पुतले को जलाया नही जाता है। लोग पुतले की लकडियो को अपने अपने घरो मे ले जा करके रखते है ताकि वे साल भर हर संकट से दूर रह सके ।
सं भंडारी
वार्ता
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