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आजादी का अमृत महाेत्सव : नये सुरों से सराबोर ‘आल्हा’ जगा रहा देशभक्ति का जज्बा

हरी कृष्ण पोद्दार से..
महोबा, 08 अगस्त (वार्ता) मातृ भमि की आन-बान-शान के लिए मर मिटने वाले बुंदेलों की शूरवीरता की गौरव गाथा का बखान करता काव्य संग्रह ‘आल्हा’ के गायन में सुर व संगीत के अभिनव प्रयोग ने श्रोताओं की दिलचस्पी बढ़ा दी है। आजादी के अमृत महोत्सव के समय मनमोहक साज बाज के साथ एकल व समूह में सुरीले गायन के साथ लाँच हुआ आल्हा का नया वर्जन लोगों, खासकर युवाओं में देशभक्ति का जज्बा जगा रहा है।
ऐसा माना जाता है कि बुंदेली काव्य परंपरा में वीर रस से ओतप्रोत आल्हा के पारंपरिक गायन को सुनकर श्रोताओं की भुजायें फड़कने लगती है। वीर रस का यह अप्रतिम महाकाव्य बुंदेलखंड ही नहीं बल्कि समूचे उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों मे खासा लोकप्रिय है।
लगभग आठ साै साल की गायन परंपरा को अपने आगोश में समेटे आल्हा पर जब नजरंदाजी के वक्त की धूल जमने लगी तब बदलते सुरों की जरूरत को महसूस कर इसे नये अंदाज में सुरों से सजाने का अभिनव प्रयोग किया गया।
नये सुर और संगीत का पुट देकर आल्हा को 21वीं सदी का नया स्वरूप देने वाले महोबा के वीणापाणी संगीत महाविद्यालय के निदेशक अबोध कुमार सोनी ने बताया कि संगीत के मिश्रण से आल्हा में लावण्य आया है। जिससे लोग इसे खूब पसंद कर रहे है। संगीत, अंतरात्मा को झंकृत करके मनुष्य को तमाम व्याधियों से मुक्ति दिलाता रहा है। यही वजह है कि इसके गठजोड़ से आल्हा के आकर्षण में वृद्धि हुई है।
सोनी का मानना है कि मंच पर साज और साजिन्दों के साथ आल्हा गायन की प्रस्तुति सबका मन मोह लेती है। आल्हा की संगीतमय प्रस्तुति सर्वप्रथम बुंदेली के ख्यातिलब्ध लोक गायक देशराज पटेरिया ने दी थी। जिसे कन्हैया कैसेट द्वारा रिकार्ड करके बाजार में उतारा गया। तब इसे लोगों ने खूब पसंद किया था। उन्होंने बताया कि संगीतमय आल्हा की नई विधा को अपना कर जीतेन्द्र चौरसिया के नेतृत्व में संगीत छात्रों के ‘नवरस म्यूजिकल ग्रुप’ ने तैयार किया है। ग्रुप के इस प्रयोग को इन दिनों राष्ट्रीय मंचो पर खूब सुना और सराहा जा रहा है।
सोनी का दावा है कि नये कलेवर में पेश हुए आल्हा के प्रति नई पीढ़ी का क्रेज बढ़ा है। संगीत के छात्र, खासकर युवतियां इसके एकल व समूह गायन में खूब रुचि ले रहे है। आल्हा के चहेतों की बढ़ती संख्या के मद्देनजर महाविद्यालय में इसकी विशेष कक्षाएं भी शुरू कराई गई है।
उधर आल्हा पर शोध कर रहे जगनिक शोध संस्थान के महासचिव डा वीरेंद्र निर्झर इसमे संगीत की मिलावट को उचित नहीं मानते हैं। उन्होंने कहा कि आल्हा ‘ओज का गीत और शूरवीरता का गान’ है। लिपिबद्ध न होने के कारण प्रत्येक गायक इसे अपने शब्दों में श्रोताओं के सामने रखता है। जिससे हरेक बार एक नई बात निकल का सामने आती है। उनकी दलील है कि नया संगीत देने से इसकी मूल आत्मा को क्षति पहुचेगी। डा निर्झर ने कहा कि आल्हा और इसके गायक अल्हैतों, लोक संस्कृति की धरोहर हैं। आज अल्हैतों के संरक्षण की आवश्यकता है। जिससे लोककाव्य की विसंगतियों को दूर कर इन्हें सही रूप में लाया जा सके।
उन्होंने बताया कि आल्हा को लिपिबद्ध किये जाने का कार्य अंग्रेज विद्वान चार्ल्स इलियट ने 1865 में किया था। जिसका 1871 में प्रकाशन कराया गया। एक अन्य अंग्रेज सर वाटर फील्ड ने इसका 1923 में अंग्रेजी अनुवाद कराया। आल्हा पर शोध में विदेशियों ने काफी रुचि दिखाई है। अमेरिका के केलीफोर्निया विश्वविद्यालय की शोध छात्रा कैरीन शोमर्स ने 1994 में आल्हा पर शोध के लिए अनेक बार भारत का दौरा किया। उन्होंने यहां के ग्रामीण क्षेत्रों का भ्रमण करके इसके सभी पहलुओं पर अध्ययन करते हुए महत्वपूर्ण जानकारियां जुटाई।
पोद्दार निर्मल
जारी वार्ता
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