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उत्तर प्रदेश लीड पूर्व मंत्री निधन दो अंतिम गोरखपुर

1970 के दशक में गोरखपुर में छात्र नेता हुआ करते थे रवींद्र सिंह ठाकुरों की ठसक तो उनमें थी लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करते थे। उनके शागिर्द हुए वीरेंद्र प्रताप शाही जो अपनी बात मनवाने के लिए किसी हद तक जाने की कुव्वत रखते थे। रवींद्र सिंह गोरखपुर विश्वविद्यालय के अध्यक्ष चुन लिए गए। मठ पर पहले से ही ठाकुरों का वर्चस्व था अब यूनिवर्सिटी में भी दबदबा हो गया। मठ और विश्वविद्यालय मिलकर गोरखपुर को मुकम्मल करते थे। ब्राह्मण पढ़ने में बेहतर थे ऐसे में हर काम में आगे रहना वो अपना हक मानते थे।
हरिशंकर तिवारी को ठाकुरों का वर्चस्व खलता था। उन्होंने परिस्थितियां भांप ली थीं। वो कद में छोटे थे लेकिन दिमाग तेज चलता था। वह प्लान बनाते फिर अमल करते। उन्होंने तय कर रखा कि कब क्या करना है। जो अपना हो गया वह कितना गलत क्यों न हो उसे प्रश्रय देकर कैसे हमेशा के लिए अपने साथ करना है वो बखूबी जानते थे। आदमी को देखकर जान लेते कि यह कितना दूर जा सकता है। जुबान से कम इशारों में ज्यादा कह जाते। किसी को मुंह नहीं लगाते उन्हें लोगों ने मुस्कुराते तो देखा लेकिन ठहाके की हंसी उनकी शायद ही किसी ने सुनी हो।
दूसरी ओर वीरेंद्र प्रताप शाही थे। खांटी ठाकुर जिसे चाहते उस पर लुटा देते। नाराज होते तो उसे सार्वजनिक रूप से बेइज्जत करते। खुले में दरबार लगाते और कब.कब क्या किया है ये सब बोल जाते। खुलेआम धमकी देते और मरने.मारने पर उतारू हो जाते। जुबान के इतने पक्के कि निर्दल लड़ने का ऐलान किया तो जनता पार्टी के कहने पर भी टिकट नहीं लिया।
रवींद्र सिंह बाद में लखनऊ विश्वविद्यालय के अध्यक्ष बन गए। इसके बाद 1978 में जनता पार्टी से विधायक बन गए। कुछ दिनों बाद ही गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर उनकी हत्या कर दी गई। विधायक के अंगरक्षक की गोली से जो हमलावर मारा गया वह गाजीपुर का कोई तिवारी निकला। इसके बाद वीरेंद्र प्रताप शाही को ठाकुरों ने अपना नेता मान लिया। उन्हें ..शेरे पूर्वांचल.. कहा जाने लगा।
हरिशंकर तिवारी पहले गोरखपुर में कमरा किराए पर लेकर रहते थे। बाद में उन्होंने ..हाता..बनाया जहां आने जाने वालों का हुजूम लगा रहता। जेपी आंदोलन में उन्होंने भले ही भाग न लिया हो लेकिन युवाओं की ताकत जान गए। उन्होंने ब्राह्मण युवाओं को गोलबंद करना शुरू किया और इसे उनकी अस्मिता से जोड़ दिया।
हरिशंकर तिवारी को बनाने में एक ब्राह्मण डीएम का भी हाथ माना जाता है जो मठ के आदेशों पर अमल करना अपनी हेठी समझते थे। उन्हें तलाश थी ऐसे नौजवान की जिसके कंधे पर बंदूक रखकर निशाना लगा सकें और मठ को चुनौती दे सकें। हरिशंकर तिवारी इसमें फिट बैठे। जमीन.जायदाद के झगड़े यहां निपटाए जाने लगे। ठेके टेंडर के फैसले भी यहीं होने लगे। तिवारी प्रशासन की शह पर इतने बड़े हो गए कि बाद में प्रशासन उनके सामने बौना हो गया।
उदय प्रदीप
वार्ता
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