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कुम्भ में विभिन्न संस्कृतियां अनेकता में एकता को करती परिभाषित

कुम्भ में विभिन्न संस्कृतियां अनेकता में एकता को करती परिभाषित

कुम्भ नगर,18 जनवरी (वार्ता) संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) द्वारा  ''मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर'' मान्यता प्राप्त कुम्भ मेला जहां बाबाओं के अलग -अलग वेष भूषा लोगों को बरबस अपनी ओर  आकर्षित कर रही है वहीं नागा सन्यासियों की मढ़ियों पर “सुट्टा” के लिए बैठे देशी-विदेशी लोगों का मिलाप “ अनेकता मे एकता के साथ विश्व बन्धुत्व” को चरितार्थ कर रहा है।


     कोई बाबा यहां अपनी आध्यात्म साधना को बल दे रहा है, कोई “सुट्टा” से दम ले रहा है ताे कोई शरीर पर भस्म लपेटे और कोई कांटो पर लेट कर लोगो का आश्चर्यचकित कर आनंद ले रह। कोई अपनी सनातनी परंपरा का निर्वाह कर रहा है कोई अपनी अन्य संस्कृति को लोगों में परोस रहा है। सभी को परमानंद की अनुभूति हो रही है।

      यहां विभिन्न संस्कृतियां एक ही प्लेटफार्म पर संगम करती हैं। वह प्लेटफार्म पतित पावनी गंगा, श्यामल यमुना और अदृश्य सरस्वती का विस्तीर्ण त्रिवेणी की रेती है। इस प्लेटफार्म की विशेषता है भले ही लोग एक दूसरे की भाषा नहीं समझे पर उनकी भावनाओं को आसानी से समझते हैं। कई बार त्रिवेणी मार्ग पर ऐसे रोमांचारी दृश्य परिलक्षित होते हैं जब कोई विदेशी किसी साधारण व्यक्ति से कोई जानकारी मांगता है। वह कुछ समझ नहीं पाता पर अपने भाव को उसके भाव से जोड़कर हाथ के इशारे से संगम नोज की तरफ इशारा करता है। विदेशी धन्य होकर “ थैंक्यू” कह आगे बढ़ जाता है। यह व्यवहारिकता की संस्कृति को प्रकट करता है।

मेले में अलग-अलग वेष भूषा वाले बाबाओं की कमी नहीं है। दुनिया के कोने कोने से पतित पावनी गंगा, श्यामल यमुना और अदृश्य सरस्वती के त्रिवेणी में आस्था की डुबकी लगाने पहुंचे श्रद्धालुओं में किसी बाबा का 70 किलो के रूद्राक्ष  की टोपी और उसी का वस्त्र रूप में धारण, किसी के गले में मुंड़ माला तो किसी के बड़ी जटाओं का आकर्षण अपनी ओर आकर्षित कर रहा है।

     तीर्थराज प्रयाग के विस्तीर्ण रेती पर बसे विहंगम कुम्भ में जहां विभिन्न वेष भूषा वाले बाबा लोगों को आकर्षण का केन्द्र बन रहे है वहीं छोटे-छोटे बच्चे भी उनसे पीछे नहीं हैं। संगम का किनारा हो या मेला को वृहत क्षेत्र, अलग अलग देवी देवताओं का मुखौटा लगाए बच्चे नजर आते हैं। किसी ने मृगक्षाला धारण किया है तो कोई काली का मुखौटा पहन, हाथ में खड्ग और खप्पर लेकर लोगों को आकर्षित कर रहा है।

      मेले में कुछ बाबा ऐसे मिलेगें जो कुटिया में मोटी लकड़ी लगाकर धूनी रमाये बैठे हैं। उनके अगल बगल कुछ विदेशी पर्यटक और अन्य लोगों को घेरा बैठा रहता है। यहां लगातार “सुट्टा” चिलम का दौर चलता रहता है। एक छोटी सी मिट्टी की चिलम होती है जिसमें गांजा भरा होता है। एक किनारे से शुरू होता है सुट्टा मारने का क्रम तो दूसरे किनारे जाकर ही रूकता है।

मेले में कोई अकेला नहीें। यहां हर किसी के साथ कोई न/न कोई जुडा है। अनेकता में एकता का प्रतीक और विश्व बन्धुत्व की भावना लिए हुए है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण गंगा में एक साथ राजा-रंक, अमीर-गरीब, महिला-पुरूष, विकलांग जहां एक साथ त्रिवेणी में आस्था की डुबकी लगाकर अनेकता में एकता को दर्शाता है वहीं बाबाओं की मढ़ी में गोला आकार में बैठे देश-विदेश के अलग-अलग स्थानों से आए पर्यटक और स्थानीय जिसमें शामिल पास में काम करने वाले मजदूर सुट्टा मारने के साथ  “विश्व बंधुत्व” को दर्शाता है।

     सेक्टर 16 में जूना अखाड़े के बाहर कई नागा सन्यांसी और झूंसी में गंगा तीरे कुटिया में धूनी रमाये बैठे हैं। इनके अगल बगल विदेशी और स्थानीय लोग भी अपनी बारी आने का इंतजार करते शांत चित्त बैठे रहते हैं। एक व्यक्ति दम मारने के बाद दूसरे की तरफ चिलम बढ़ा देता है। यह क्रम बारी-बारी से आगे बढ़ता रहता है। सुट्टा मारने के बाद सभी अपनी-अपनी अलग दिशाओं में बढ़ जाते हैं। खूबी यह कि यहां अधिकांश एक दूसरे को जानते-पहचानते नहीं लेकिन सम्मान सब को एक बराबर। यहां “नसेड़ी यार किसके, दम लगाये खिसके” को चरितार्थ करती है।”

   “मढ़ी में बैठे यूएसए के टूटी-फूटी हिन्दी बोलने वाला विलियम ने बताया,“उसे चिलम का ‘सुट्टा” बहुत अच्छा लगता है। कुछ समय के लिए वह सब कुछ भूल जाता है। उसने कहा हम जानटा है नशा खराब होता है लेकिन जीने का कोई सहारा तो चाहिए। उसने बताया वह एक अच्छा स्कालर था। लेकिन कुछ ऐसी परिस्थितयां उसके सामने आयीं कि उसका सारा क्रेज खत्म हो गया। उसने बताया,“ लोग हिन्दुस्तान के बारे में बोलटा ही वहां बहुत धोका होता है, लेकिन यहां बहुट अच्छा लोग है। हम कभी कभी इधर आटा है।” हमको यहां बहुट अच्छा लगता है।

दिनेश भंडारी

वार्ता

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