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सनातन धर्म में अस्पृश्यता कभी नहीं रही स्वीकार्य : अड़गड़ानंद

सनातन धर्म में अस्पृश्यता कभी नहीं रही स्वीकार्य : अड़गड़ानंद

कुम्भनगर 23 जनवरी (वार्ता) यथार्थ गीता के प्रणेता स्वामी अड़गड़ानंद ने बुधवार को दावा किया कि सनातन धर्म में अस्पृश्यता यानी छुआछूत को कदापि स्वीकार नहीं किया गया।


दुनिया के सबसे बड़े आध्यात्मिक और सांस्कृतिक कुम्भ मेले में शिरकत करने आये स्वामी अड़गड़ानंद ने कहा,‘भारत में अस्पृश्यता कभी स्वीकार्य नहीं रही। यहां का समाज सदैव से समरसता पूर्ण रहा है। मौजूदा समय में दिखाई पड़ने वाली अस्पृश्यता वास्तव में धर्मशास्त्र गीता के भूल जाने का द्योतक है। ”

गीता में भगवान ने स्पष्ट कहा है कि “ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:” अर्थात सभी मनुष्य एक ही प्रभु के अंश हैं। उतने ही पावन हैं तो कोई अछूत कैसे हो सकता है। भारत में धर्म और समाज इस कदर घुले मिले हैं कि समाज सुधार में लगे लोगों को धर्म सुधार की बात करनी पड़ती है और धर्माचार्य समाज सुधार की बहस में कूद पड़ते हैं, जबकि धार्मिक भ्रांतियों का निदान भी धार्मिक तरीके से किया जाने की जरूरत है।

उन्होंने कहा कि समरसता के उद्देश्य को प्राप्त करने में सबसे बड़ी समस्या धार्मिक भ्रांतियों की है। धर्म के नाम पर रुढिवादिता का प्रचलन जारों पर है जिसका निराकरण यथार्थ गीता के आलोक में किया जा सकता है।

स्वामी अड़गडानंद ने कहा कि मनुष्य के हृदय में देवता और आसुरी शक्तियां विद्यमान हैं। दुनिया में मनुष्य की दो जातियां होती हैं। दैवी संपदा से युक्त मनुष्य देवता के समान है और असुर संपदा से युक्त होने पर असुर कहलाता है। मनुष्य के हृदय में जब विवेक, वैराग्य,सम और दम नियम काम करते हैं तब वह देवता के समान है और जब काम, क्रोध, लोभ , राग और द्वेष रखते हैं तो वह असुर होते हैं।

       प्रजातंत्र में राजनीतिक दलों के लिए वोट प्राप्त करना ही उद्देश्य बन गया है। निर्वाचन क्षेत्रों में बहुसंख्यक जाति और संप्रदाय के व्यक्ति को प्रत्याशी बनाया जाता है। ऐसे वातावरण में राजनीतिज्ञों से समरसता की अपेक्षा कैसे की जा सकती है।

       उन्होंने कहा कि गीता मनुष्य- मनुष्य में भेदभाव का प्रतिकार करती है। गीता में धर्म, कर्म, वर्ण सभी के बारे में समझाया गया है।  इसलिए वास्तव में समरसता के लिए, समाज की सभी समस्याओं के समाधान के लिए गीता भाष्य यथार्थ गीता का अनुकरण आवश्यक है।

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