नयी दिल्ली, 20 जुलाई (वार्ता) जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) के प्रो. रजनी कुमार मिश्रा ने शनिवार को यहां कहा कि भारतीय संस्कृति में ऊंच-नीच का विभेद नहीं करते। हमारे शास्त्र विचारों के हैं, विचारधारा के नहीं।
इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र (आईजीएनसीए) की यूजीसी से मान्यता प्राप्त अर्धवार्षिक पत्रिका ‘कला कल्प’ के गुरु पूर्णिमा अंक का लोकार्पण किया गया और कला कोश द्वारा तैयार नौ महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का भी लोकार्पण किया गया। कार्यक्रम में भगवान महाकाल की नगरी उज्जैन के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्त्व पर आधारित फिल्म ‘उज्जैन: द एबोड ऑफ महाकाल’ का प्रदर्शन भी किया गया।
इस मौके पर मुख्य वक्ता जेएनयू के संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान के आचार्य प्रो. रजनी कुमार मिश्रा, आईजीएनसीए के अध्यक्ष राम बहादुर राय, आईजीएनसीए के सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी, निदेशक (प्रशासन) डॉ. प्रियंका मिश्रा और कला कोश के विभागाध्यक्ष प्रो. सुधीर लाल भी उपस्थित थे।
प्रो. रजनीश कुमार ने कहा,“हम ऊंच-नीच का विभेद नहीं करते। हमारे शास्त्र विचारों के हैं, विचारधारा के नहीं। भारतीय संस्कृति गुरु-शिष्य परम्परा द्वारा संरक्षित हैं। हमारे यहां कोई भी बात परम्परा से विछिन्न होकर, कट कर नहीं कही गई है और न ही की जाती है। यदि कही भी जाएगी, तो कालांतर में वह लुप्त हो जाएगी।”
उन्होंने शास्त्रों के अनुसार गुरु की विशेषता बताते हुए कहा कि जो शिव तत्त्व को जानने वाला है, शांत है, जितेन्द्रिय है, सत्त्ववान है, निष्कंप है, यानी जिसमें जरा भी विचलन नहीं है और जिसमें शिव शास्त्रों का अनुभव है, वह गुरु है।
श्री राय ने कहा,“गीता में भगवान कृष्ण जिस स्पृहा रहित अवस्था का ज्ञान दे रहे हैं, वह भी गुरु की महिमा का ज्ञान है। गुरु सिखाता है और वह एक धागा भी देता है, जो धागा है, वह कर्म का मंत्र भी देता है। व्यक्ति को उस धागे में कर्म को विशुद्ध बुद्धि से पिरोना पड़ता है। यही साधना है। व्यक्ति अगर तैयार है, तो गुरु को खोजना नहीं पड़ता, गुरु खुद आपको खोज लेता है। प्रश्न यह है कि क्या हम सचमुच गुरु को खोजना चाहते हैं! गुरु पूर्णिमा इस शाश्वत प्रश्न को हमारे सामने उपस्थित कर देता है। सोचने की शकित् देता है। गुरु के योग्य बनकर ही हम योग्य गुरु को प्राप्त कर सकते हैं। गुरु पूर्णिमा का भाव असीम है और गुरु का भाव आकाश की तरह है।”
डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने कहा,“आज जिन पुस्तकों का लोकार्पण किया गया है, 100-150 वर्ष बाद वे महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ होंगी। समय बहुत तेजी से बदल रहा है, और इसीलिए परम्पराओं की अपनी व्याख्या भी बदल रही है, संस्कारों की व्याख्या भी बदल रही है। कई लोग संस्कारों और परम्पराओं के बीच में आवश्यकता का प्रश्न भी उठा लेते हैं। तब हमें निश्चित रूप से समझ में आता है कि इन तमाम शास्त्रीय ग्रंथों की आवश्यकता क्यों है। क्योंकि, जब कभी आपको संदर्भ विकसित करना है। संदर्भ के माध्यम से कोई बात पुष्ट करनी है, तो निश्चित तौर पर आपको ऐसे ग्रंथों की आवश्यकता पड़ती है। नई पीढ़ी का निर्माण बहुत आवश्यक है, क्योंकि जो काम हम कर रहे हैं, उसके लिए हमारे पास नई पीढ़ी तैयार होनी चाहिए।”
लोकार्पित नौ पुस्तकें भिक्षावृत्ति, प्रौद्योगिकी, घर एवं वास्तु, हिन्दू संस्कृति का वैश्विक इतिहास, महात्मा गांधी की दृष्टिः राधाकृष्ण का उद्यमः जीवन, विचार व कार्य, कुन्द्राथुर, उल्लावुर, त्रिभंगा- द स्कल्प्चरल इवोल्यूशन ऑफ दुर्गा एंड अर्धनारीश्वर, अप्लाइड नाट्य थेरेपी (ई-बुक) हैं।
श्रद्धा.संजय
वार्ता