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आवाज के जादू से श्रोताओं को दीवाना बनाया नूरजहां ने

आवाज के जादू से श्रोताओं को दीवाना बनाया नूरजहां ने

पुण्यतिथि 23 दिसंबर 

मुंबई, 22 दिसंबर (वार्ता) बॉलीवुड में मल्लिका-ए-रन्नुम के नाम से मशहूर पार्श्वगायिका अल्लाह वासी उर्फ नूरजहां को ऐसी शख्सियत के तौर पर शुमार किया जाता है, जिन्होंने अपनी आवाज की जादू से श्रोताओं को दीवाना बना दिया।

पंजाब के एक छोटे से कस्बे कसुर में एक मध्यम वर्गीय परिवार में जब नूरजहां का 21 सितंबर 1926 को जन्म हुआ तो नवजात शिशु के रोने की आवाजको सुन बुआ ने कहा इस बच्ची के रोने में भी संगीत की लय है। नूरजहां के माता-पिता थियेटर में काम किया करते थे। घर में फिल्मी माहौल के कारण नूरजहां का रूझान बचपन से ही संगीत की ओर हो गया था। नूरजहां ने यह निश्चय किया कि बतौर पार्श्वगायिका अपनी पहचान बनायेगी। उनकी माता ने नूरजहां के मन मे संगीत के प्रति बढ़ते रूझान को पहचान लिया। उन्हें इस राह पर आगे बढ़ने के लिये प्रेरित किया और उनके लिये संगीत सीखने की व्यवस्था घर पर ही करा दी।

नूरजहां ने अपनी संगीत की प्रारंभिक शिक्षा कजानबाई से और शास्त्रीय संगीत की शिक्षा उस्ताद गुलाम मोहम्मद तथा उस्ताद बडे गुलाम अली खान से ली थी । वर्ष 1930 में नूरजहां को इंडियन पिक्चर के बैनर तले बनी एक मूक फिल्म 'हिन्द के तारे' में काम करने का मौका मिला। इसके कुछ समय के बाद उनका परिवार पंजाब से कोलकाता चला आया। इस दौरान उन्हें करीब 11 मूक फिल्मों में अभिनय करने का मौका मिला। वर्ष 1931 तक नूरजहां ने बतौर बाल कलाकार अपनी पहचान बना ली थी।

वर्ष 1932 में प्रदर्शित फिल्म 'शशि पुन्नु' नूरजहां के सिने कैरियर की पहली टॉकी फिल्म थी। इस दौरान नूरजहां ने कोहिनूर यूनाईटेड आर्टिस्ट के बैनर तले बनी कुछ फिल्मों मे काम किया। कोलकाता मे उनकी मुलाकात फिल्म निर्माता पंचोली से हुयी। पंचोली को नूरजहां मे फिल्म इंडस्ट्री का एक उभरता हुआ सितारा दिखाई दिया और उन्होंने उसे अपनी नयी फिल्म 'गुल ए बकावली' के लिये चुन लिया। इस फिल्म के लिये नूरजहां ने अपना पहला गाना साला जवानियां माने और पिंजरे दे विच रिकार्ड कराया।

लगभग तीन वर्ष तक कोलकाता रहने के बाद नूरजहां वापस लाहौर चली गयी। वहां उनकी मुलाकात मशहूर संगीतकार जी. ए. चिश्ती से हुयी जो स्टेज प्रोग्राम में संगीत दिया करते थे। उन्होने नूरजहां से स्टेज पर गाने की पेशकश की जिसके एवज में नूरजहां को प्रति गाना साढ़े सात आने दिये गये। साढ़े सात आने उन दिनों अच्छी खासी राशि मानी जाती थी। वर्ष 1939 मे निर्मित पंचोली की संगीतमय फिल्म 'गुल ए बकावली' की सफलता के बाद नूरजहां फिल्म इंडस्ट्री की चर्चित शख्सियत बन गयी।

इसके बाद वर्ष 1942 में पंचोली की हीं निर्मित फिल्म 'खानदान' की सफलता के बाद नूरजहां बतौर अभिनेत्री फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गयी। फिल्म 'खानदान' में उन पर फिल्माया गाना कौन सी बदली में मेरा चांद है आजा श्रोताओं के बीच काफी लोकप्रिय भी हुआ। फिल्म 'खानदान' की सफलता के बाद नूरजहां ने फिल्म के निर्देशक शौकत हुसैन से निकाह कर लिया इसके बाद वह मुंबई आ गयी। इस बीच नूरजहां ने शौकत हुसैन की निर्देशित नौकर, जुगनू जैसी फिल्मों मे अभिनय किया।

नूरजहां अपनी आवाज मे नित्य नये प्रयोग किया करती थीं। अपनी इन खूबियों की वजह से वह ठुमरी गायिकी की महारानी कहलाने लगी। इस दौरान नूरजहां की दुहाई, दोस्त और बड़ी मां, विलेज गर्ल जैसी कामयाब फिल्में प्रदर्शित हुयी। इन फिल्मों में उनकी आवाज का जादू श्रोताओ के सर चढ़कर बोला। इस तरह नूरजहां मुंबइयां फिल्म इंडस्ट्री में मल्लिका-ए-तरन्नुम कही जाने लगीं। वर्ष 1945 में नूरजहां की एक और फिल्म 'जीनत' भी प्रदर्शित हुयी। इस फिल्म का एक कव्वाली आहे ना भरी शिकवें ना किये,कुछ भी ना जुवां से काम लिया श्रोताओं के बीच बहुत लोकप्रिय हुई।

नूरजहां को वर्ष 1946 मे प्रदर्शित निर्माता निर्देशक महबूब खान की अनमोल घड़ी मे काम करने का मौका मिला। महान संगीतकार नौशाद के निर्देशन में नूरजहां का गाये गीत आवाज दे कहां है,आजा मेरी बर्बाद मोहब्बत के सहारे, जवां है मोहब्बत श्रोताओं के बीच आज भी लोकप्रिय है। वर्ष 1947 में भारत विभाजन के बाद नूरजहां ने पाकिस्तान जाने का निश्चय कर लिया। फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार ने जब नूरजहां से भारत में ही रहने की पेशकश की तो नूरजहां ने कहा ...मैं जहां पैदा हुयी हूँ वहीं जाउंगी। पाकिस्तान जाने के बाद भी नूरजहां ने फिल्मों मे काम करना जारी रखा।

लगभग तीन वर्ष तक पाकिस्तान फिल्म इंडस्ट्री मे खुद को स्थापित करने के बाद नूरजहां ने फिल्म 'चैनवे' का निर्माण और निर्देशन किया। उसने बॉक्स आफिस पर खासी कमाई की। इसके बाद वर्ष 1952 में प्रदर्शित फिल्म 'दुप्पटा' ने फिल्म 'चैनवे' के बाक्स ऑफिस रिकार्ड को भी तोड़ दिया। फिल्म दुप्पटा मे नूरजहां की आवाज मे सजे गीत श्रोताओं के बीच इस कदर लोकप्रिय हुये कि न सिर्फ इसने पाकिस्तान में बल्कि पूरे भारत वर्ष में भी इसने धूम मचा दी। ऑल इंडिया रेडियो से लेकर रेडियो सिलोन पर नूरजहां की आवाज का जादू श्रोताओं पर छाया रहा।

वर्ष 1963 में नूरजहां ने अभिनय की दुनिया से विदाई ले ली। वर्ष 1966 में नूरजहां पाकिस्तान सरकार की ओर से तमगाए-इम्तियाज सम्मान से नवाजी गयीं। वर्ष 1982 में इंडिया टाकी के गोल्डेन जुबली समारोह मे नूरजहां को भारत आने को न्योता मिला तब श्रोताओं की मांग पर नूरजहां ने आवाज दे कहां है दुनिया मेरी जवां है गीत पेश किया और उसके दर्द को हर दिल ने महसूस किया।

वर्ष 1996 में नूरजहां आवाज की दुनिया से भी जुदा हो गयी। वर्ष 1996 में प्रदर्शित एक पंजाबी फिल्म सखी बादशाह में नूरजहां ने अपना अंतिम गाना कि दम दा भरोसा गाया। नूरजहां ने अपने फिल्मी कैरियर में लगभग एक हजार गाने गाये। हिन्दी फिल्मों के अलावा नूरजहां ने पंजाबी, उर्दू और सिंधी फिल्मों में भी अपनी आवाज से श्रोताओं को मदहोश किया। अपनी दिलकश आवाज और अदाओं से सबो को महदोश करने वाली नूरजहां 23 दिसंबर 2000 को इस दुनिया से रूखसत हो गयीं।

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