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राज्य


पानी के संकट से उबार सकते हैं बांज के जंगल

अल्मोडा 01 जून (वार्ता) जल संकट से जूझ रहे उत्तराखण्डवासियों को इस समस्या से निजात दिलाने में बांज के जंगल वरदान साबित हो रहे हैं। एक समय था जब उत्तराखंड देश के अधिकांश हिस्सों को उत्तराखंड जल संकट से उबारता था लेकिन अब वही इस समस्या से जूझ रहा है। इस परेशानी से उबरने में बुजुर्गों की दूरदृष्टि तथा अथक मेहनत काफी रंग ला रही है। बुजुर्गों की वजह से वर्तमान पीढी को उपहार में मिला बांज का जंगल अल्मोडा जिले के अनेक गांवों के लिए वरदान सिद्ध हो रहा है। समुद्र तल से लगभग छह हजार फुट की ऊंचाई पर बसे उत्तराखंड में अल्मोडा के ताकुला ब्लाक के ढौल गांव में बांज के जंगल से निकले जल स्रोतों के कारण न/न केवल इस गांव में पानी की कमी नहीं है बल्कि अपने से नीचे बसे गांवों तथा आसपास के क्षेत्रों के लिए भी यही जलस्रोत संकट मोचक बने हैं । वैज्ञानिकों ने अपने शोधों से भले ही अब सिद्ध कर दिया है कि बांज(जिसका वैज्ञानिक नाम क्वारकस है) के पेड की आसपास की जमीन में पानी को संग्रहीत करने की उच्च क्षमता है, लेकिन ढौल गांव के बुजुर्गों को अपने अनुभव से इस बात का अनुमान बहुत पहले हो गया था जिसमें उन्होंने बांज के पेडों को अपने बच्चों की तरह पालना शुरु कर दिया। लगभग आठ से दस वर्ग किलोमीटर में फैला बांज का यह जंगल करीब 150 वर्ष पुराना है। गांव के बुजुर्गों ने बताया कि उनकी पुरानी पीढी ने ग्राम पंचायत की जमीन पर बांज के पेडों को लगाने तथा इनकी सुरक्षा करने का बीडा उठाया। 


          बांज का उत्तराखण्ड के जनजीवन में हमेशा से खास स्थान रहा है । उत्तराखण्ड के लोक गीतों में भी इसके गुणों का बखान किया गया है तथा बडे प्यार से इसके पेडों को किसी प्रकार की हानि न/न पहुंचाने के बारे में बताया है । एक प्रसिद्ध लोक गीत में जंगल का चौकीदार लछिया नाम की एक स्त्री से कहता है, “बांजा न काट लछिमा वे तू बांजा न काटा, बांज काटलि पाप लागलि, बांजा वे तू बांजा न काटा ।” अर्थात लछिमा तुम इन बांज के पेडों को न/न काटो यदि तुमने ऐसा किया तो तुम्हें पाप लगेगा। गांव के लोगों को इस बात का दु:ख है कि राज्य सरकार के कोष में इन पेडों से विशेष आमदनी न/न होने के कारण इनको लगाने में कोई प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है। वृक्षारोपण के नाम पर चीड के पेड मिलते हैं जो जमीन का सारा पानी सोख लेते हैं। गढवाल-कुमाऊ के जंगलों में हर वर्ष लगने वाली आग के फैलने का एक बडा कारण चीड के जंगल हैं। दूसरी ओर बांज के जंगल में आग लग भी जाय तो फैल नहीं पाती और आसानी से इस पर काबू पाया जा सकता है। हालांकि, केवल लकडी की कटाई और लीसा आदि पर ही नजर रखने वाली संकीर्ण दृष्टि से बांज के जंगल व्यावसायिक दृष्टि से लाभप्रद नहीं नजर आते हैं, पर इनमें अपार प्राकृतिक लाभ देने की क्षमता है। बांज के पेडों के तने पर उगने वाली झुल नामक वनस्पति का प्रयोग अनेक दवाओं, मसालों, प्राकृतिक रंग आदि बनाने में किया जाता है।


           राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान लखनऊ के वैज्ञानिक डा0 डी के उप्रेती ने बताया कि बांज के जंगलों में ह्यूमस अधिक होता है जो पानी को अपने में संग्रहीत करने की क्षमता रखता है। डा0 उप्रेती ने बताया कि इसका वृक्ष छतरी की आकृति का होता है तथा इसकी पत्तियां खूब घनी तथा चौडी आकृति की होने के साथ स्पन्जी तथा हवा भरी होती हैं जो ह्यूमस बनने में सहायक होती है। उन्होंने बताया कि ह्यूमस की अधिकता के कारण बांज के पेडों से गिरने वाली पत्तियां अम्लीय न/न होने के कारण जल्दी गल जाती हैं जिससे आसपास की जमीन हवादार एवं सोखने के समान बन जाती हैं। इससे उसमें पानी को रोकने की उच्च क्षमता उत्पन्न हो जाती है। इस प्रक्रिया में कई वर्ष लगते हैं। डा0 उप्रेती ने बताया कि बांज के वृक्ष अन्य जाति की वनस्पतियों को शरण देने की क्षमता होती है जिससे इसमें झुल सबसे अधिक पाया जाता है जो वातावरण को शुद्ध तो करता ही है तथा व्यावसायिक दृष्टि से भी उपयोगी सिद्ध हो रहा है। साथ ही इसके पेडों के नीचे की जमीन में अनेक प्रकार की वनस्पतियां उगती हैं जो पानी रोकने के साथ जमीन की कटान भी रोकती हैं। वन विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार अल्मोडा जिले में 8401 दशमलव तीन हेक्टेयर क्षेत्र में बांज के वन हैं। अंग्रेज वैज्ञानिक आस्कर मैस्टन ने अपने शोध में बांज की पांच प्रजातियां बतायी थीं जिसकी पुष्टि डा0 उप्रेती ने भी की। उन्होंने बताया कि इसकी सबसे अच्छी किस्म अल्मोडा में पायी जाती है।


            झुल के व्यवसायिक दोहन के लिए कोई ठोस कार्य न/न कर पाने के कारण राज्य सरकार को भले ही इन पेडों से कोई आय नहीं है लेकिन उत्तराखण्ड की जीवनशैली में इनका अपना महत्व है। जहां इसके पडों से पर्यावरण में सन्तुलन बना रहता है वहीं इसकी लकडी मजबूत होती है जो हल, नसुड, जुवा जैसे खेती में काम वाले सामान बनाने के काम आती है। वैज्ञानिक तथ्यों से बेखबर गांव के बुजुर्गों ने बताया कि इतनी ऊंचाई पर सूखे की स्थिति में भी बांज के वन क्षेत्र वाले जल स्रोत बने रहे जबकि जहां-जहां चीड के जंगल फैले वहां के जल स्रोत सूख रहे हैं। पैंसठ वर्षीय ढौल के पूर्व ग्राम प्रधान कुंवर सिंह ने बताया कि पुरखों द्वारा दिये गये नायाब तोहफे को उन लोगों ने आज भी सुरक्षित रखा है। उन्होंने बताया कि किसी भी व्यक्ति को ग्राम पंचायत की अनुमति के बिना बांज की एक टहनी भी काटने की अनुमति नहीं दी जाती है। यदि किसी ने कोशिश भी की तो उससे दण्ड वसूला जाता है। नहीं मानने पर सामाजिक बहिष्कार तक किया जाता है। उन्होंने बताया कि मार्च से जून तक जानवरों के चारे के लिए गांव वालों को पत्तियां तोडने के पास दिये जाते हैं। बांज वन क्षेत्र में औजार लेकर जाने की अनुमति नहीं दी जाती है। पत्तियां तोडने के लिए वन क्षेत्र को पांच भागों में बांटा गया है। एक वर्ष में एक भाग को पत्तियां तोडने के लिए खोला जाता है। 


             वन रेंजर पद से अवकाश ग्रहण करने वाले सत्तर वर्षीय मोहन सिंह ने बताया कि उन्होंने जब से होश सम्भाला, बांज के वन को सामने पाया। आज बहुत से स्रोत सूख गये हैं लेकिन बांज के जंगलों से निकले स्रोतों का पानी कई गांवों की आवश्यकता की पूर्ति कर रहा है। उन्होंने बताया कि इसको बचाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड रही है। उन्होंने इस बात पर नाराजगी जाहिर की कि नौजवान पीढी इसमें दिलचस्पी नहीं ले रही है। बीते समय को याद करते हुए उन्होंने बताया कि चालीस वर्ष पूर्व जब भयंकर आग लग गयी थी तब पूरे गांव वालों ने तीन दिन तक भूखे प्यासे रहकर भी आग को बांज के पेडों तक नहीं बढने दिया था। गांव के ही अवकाश प्राप्त ग्राम विकास अधिकारी मदन सिंह ने बताया कि वे उत्तराखण्ड के विभिन्न ग्रामीण अंचलों में रहे लेकिन उन्हें ऐसा बांज का वन देखने को नहीं मिला। 


 


 


 

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