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रक्षाबंधन पर्व अछूता नही रह सका आधुनिकता के प्रभाव से: डा कुमुद दुबे

रक्षाबंधन पर्व अछूता नही रह सका आधुनिकता के प्रभाव से: डा कुमुद दुबे

प्रयागराज, 03 अगस्त (वार्ता) भारतीय संस्कृति की गौरवमयी परंपरा और भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक रक्षाबंधन भी आधुनिकता के प्रभाव से अछूता नही रहा और परंपरागत राखियों के स्थान ने रेशम के चमकीले एवं चांदी और सोने के जरी युक्त राखियों ने ले लिया है।
परंपरागत कच्चे सूत की राखियां बाजार से गुम होने लगी हैं और उसके स्थान पर रेशम से लेकर सोने-चांदी तक वाली राखियां उपलब्ध है। पहले कच्चे सूत, मेटल एवं लकड़ी मिश्रित राखियां बाजारों में बिकती थी, लेकिन अब सोने-चांदी की जरीयुक्त राखियां बिकनी लगी है। रक्षाबंधन पर्व पर अब बाजारवाद हावी हो गया है।
रक्षाबंधन का पावन पर्व हर साल सावन माह की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। आजकल लोग भाई-बहन के पवित्र प्रेम को रूपये और पैसों से आंकने लगे हैं। रक्षा बंधन का स्नेहिल पर्व हमारी भारतीय संस्कृति की गौरवमयी परंपरा का एक अभिन्न हिस्सा है। श्रावणी पर्व पर किए जाने वाले रक्षा विधान में वैदिक एवं पौराणिक मंत्रों से अभिमंत्रित किया जाने वाला कलावा मात्र तीन धागों का समूह ही नहीं है अपितु इस में आत्मरक्षा, धर्मरक्षा और राष्ट्ररक्षा के तीनों सूत्र संकल्पबद्ध होते हैं।
रक्षाबन्धन पर्व सामाजिक और पारिवारिक एकबद्धता या एकसूत्रता का सांस्कृतिक उपाय रहा है। यह पर्व भारतीय समाज में इतनी व्यापकता और गहराई से समाया हुआ है कि इसका सामाजिक महत्त्व तो है ही, धर्म, पुराण, इतिहास, साहित्य और फ़िल्में भी इससे अछूते नहीं हैं। वैज्ञानिक एवं प्रचार-प्रसार प्रभारी वन अनुसंधान केन्द्र (प्रयागराज) डा कुमुद दुबे ने बताया कि मौजूदा समय में राखियां स्टेटस आफ सिंबल बन गयी हैं। रक्षाबंधन पर्व पर भौतिकतावाद हावी हो रहा है। यह पर्व भाई बहन सच्चे प्रेम के प्रतीक है लेकिन अब पैसा प्यार पर हावी हो गया है। बहन कच्चे धागे की डोर कलाई पर बांधती थी और भाई उसकी रक्षा की कसम खाते थे। लेकिन बदलते समय के साथ पर्व में भी बहुत बदलाव देखने का मिल रहा है।
उन्होने बताया कि अमीर लोग बच्चों को राखियों के रूप में महंगी घडियां सोने चादी के ब्रेसलेट आदि दिलवाना पसंद करते हैं। बहने भाई को मिठाई के बजाए बर्गर, पिज्जा एवं मेवे पैकेट थमा रही हैं तो भाई उनको मंहगे तोहफे भेट करते हैं। उन्होने कहा कि आज बहन भाई के कलाई पर धागा बांध कर अपनी रक्षा का ही वचन नहीं लेती वरन कीमती तोहफे की उम्मीद रखती है।
डा कुमुद दुबे ने कहा कि समाज में नए-नए अपराध पनप रहे हैं। ऐसी विषम परिस्थितियों में यदि बहन की समस्त बाधाओं से रक्षा का संकल्प लिया जाए तो समाज अपराध मुक्त हो सकता है। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि अपनी बहन की रक्षा के साथ हम सभी की बहनों की रक्षा का भी संकल्प लें। इस प्रकार यह पर्व भारत की आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक परंपरा का संकल्प दिवस बनकर एक नए युग में प्रवेश करा सकता है।
उन्होने कहा कि आज जरूरत है दायित्वों से बंधी राखी का सम्मान करने की। क्योंकि राखी का रिश्ता महज कच्चे धागों की परंपरा नहीं है। लेन-देन की परंपरा में प्यार का कोई मूल्य भी नहीं है। बल्कि जहां लेन-देन की परंपरा होती है वहां प्यार टिक नहीं सकता। कथाएं बताती हैं कि पहले खतरों के बीच फंसी बहन का साया जब भी भाई को पुकारता था, तो दुनियां की हर ताकत से लड़ कर भी भाई उसे सुरक्षा देने दौड़ पड़ता था और उसकी राखी का मान रखता था। आज भातृत्व की सीमाओें को बहन फिर चुनौती दे रही है, क्योंकि उसके उम्र का हर पड़ाव असुरक्षित है। डा0 कुमुद दुबे ने कहा कि रक्षा बंधन का महत्व एवं मनाने की बात महाभारत में भी उल्लेखित है। भाई और बहन के रिश्ते को फौलाद-सी मजबूती देने वाला एवं सामाजिक और पारिवारिक एकबद्धता एवं एकसूत्रता का सांस्कृतिक पर्व है रक्षा बंधन अनेक भावनात्मक रिश्ते से बँधे होते हैं जो धर्म, जाति और देश की सीमाओं से परे हैं। यह पर्व भारतीय समाज में इतनी व्यापकता और गहराई से समाया हुआ है कि इसका सामाजिक महत्त्व तो है ही, पुराण, इतिहास, साहित्य और फ़िल्में भी इससे अछूते नहीं हैं।
रक्षाबंधन पर्व कब से शुरू हुआ इसका कोई आधिकारिक दस्तावेज नहीं है लेकिन इसके बारे में पौराणिक, ऐतिहासिक और साहित्यिक प्रसंग भरे पडे हैं। इसके अलावा स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण, श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षा बंधन का प्रसंग मिलता है।
भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होते नज़र आने लगे। भगवान इन्द्र घबरा कर बृहस्पति के पास गये। वहां बैठी इन्द्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने धागा मन्त्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति के हाथ पर बाँध दिया। संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इन्द्र इस लड़ाई में इसी धागे की मन्त्र शक्ति से ही विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बाँधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन, शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है।
इतिहास मे महाभारत में भी रक्षाबन्धन से सम्बन्धित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तान्त भी मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी। इस उपकार के बदले श्री कृष्ण ने द्रौपदी को किसी भी संकट मे द्रौपदी की सहायता करने का वचन दिया था। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने उस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी का चीर बढ़ाकर चुकाया।
स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबन्धन का प्रसंग मिलता है। विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है कि श्रावण की पूर्णिमा के दिन भगवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिये फिर से प्राप्त किया था। हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है। ऐतिहासिक प्रसंग के अनुसार राजपूत जब लड़ाई पर जाते थे तब महिलाएँ उनको माथे पर कुमकुम तिलक लगाने के साथ साथ हाथ में रेशमी धागा भी बाँधती थी। मेवाड़ की रानी कर्मावती को बहादुरशाह द्वारा मेवाड़ पर हमला करने की पूर्व सूचना मिली। रानी लड़ऩे में असमर्थ थी अत: उसने मुगल बादशाह हुमायूँ को राखी भेज कर रक्षा की याचना की। हुमायूँ ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुँच कर बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए कर्मावती और उनके राज्य की रक्षा की।
एक अन्य प्रसंगानुसार सिकन्दर की पत्नी ने अपने पति के हिन्दू शत्रु पुरू को राखी बाँधकर अपना मुँहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकन्दर को न मारने का वचन लिया। पुरू ने युद्ध के दौरान हाथ में बँधी राखी और अपनी बहन को दिये हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकन्दर को जीवन-दान दिया था।
दिनेश विनोद
वार्ता

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