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लुप्त हो रही ‘रामलीला’

लुप्त हो रही ‘रामलीला’

औरंगाबाद/पटना 15 अक्टूबर (वार्ता)वनवास गये भगवान राम के वियोग में अयोध्यावासियों के उनकी बाल लीलाओं के मंचन से शुरू हुई ‘रामलीला’ की परंपरा टेलीविजन एवं अन्य माध्यमों से हावी हुई आधुनिक जीवन शैली, कलाकारों को प्रोत्साहन न मिलने एवं अपसंस्कृति के बढ़ते दबाव में लुप्त होती जा रही है।

प्रेम-भाईचारा, सद्भाव, संस्कृति एवं सहिष्णुता को बढ़ावा देने के लिए दशहरा के अवसर पर बिहार समेत उत्तर भारत में राम की लीलाओं के मंचन की परंपरा का स्थान अब फूहड़ सिनेमा और कार्यक्रमों ने ले लिया है। स्थिति ताे यह आ गई है कि कई मंचों पर अब रामलीला की जगह रामानंद सागर के टीवी धारावाहिक ‘रामायण’ की वीडियो दिखाई जाती है।

रामलीला कलाकार रह चुके प्रख्यात इतिहासकार प्रो. तारकेश्वर प्रसाद सिंह बताते हैं कि पहले गांव में दशहरा पर रामलीला मंचन के लिए लोग दो-दो महीने तक अभ्यास किया करते थे। इस दौरान न केवल आपस में प्रेम बढ़ता था बल्कि रामलीला के प्रेरक प्रसंगों को देख-सुनकर लोगों में भी मर्यादित आचरण अपनाने का संदेश जाया करता था।

श्री सिंह ने बताया कि जब तक रामलीला मंचन की परंपरा रही तब तक गांवों में उग्रवाद का नामो-निशान नहीं था और दशहरा के पर्व पर लोग मिल-जुलकर खुशी बांटा करते थे। हालांकि दशहरा के मौके पर गांवों की रामलीला कमिटियों द्वारा बनारस, मथुरा, वृंदावन, अयोध्या, कोलकाता, दिल्ली की मशहूर रामलीला मंडलियों को रामलीला की प्रस्तुति के लिए बुलाने का रिवाज था, जो अब प्राय: समाप्त हो गया है।

       जाने-माने नाटककार लाला शंभूनाथ ने बताया कि पहले रामलीला के कलाकारों को गांवों में इज्जत दी जाती थी वहीं ग्रामीण समाज के भी शहरीकरण के रंग में रंग जाने के कारण उन्हें अब रामलीला में भोंड़े प्रदर्शनों के लिए मजबूर किया जाता है। उन्होंने बताया कि इससे कलाकारों के आत्मसम्मान और रामलीला की भावना को ठेस पहुंचती है। यह भी एक कारण है कि कलाकारों का रामलीला के प्रति रुख उदासीन हो गया है।

एक समय था जब गांव-गांव में दशहरा के आगमन के कई माह पूर्व ही रामलीला के खेल के लिए रामलीला कमिटियां गठित होने लगती थी, वहीं अब ऐसी कमिटियां अब गांवों में बिरले ही नजर आती है। अब बिहार के इक्के-दुक्के गांवों में ही रामलीला देखने को मिलती है। पहले बिहार के गांवों में दशहरा के मौके पर करीब दस दिनों तक चलने वाली रामलीला के मंचन को देखने के लिए देश के अलग-अलग राज्यों से ही नहीं बल्कि पड़ोसी देश नेपाल से भी काफी लोग यहां आते थे लेकिन अब न तो वैसी रामलीला रही और न ही उसे दूर-दूर तक जाकर देखने-समझने तथा इससे आनंद उठाने वाले लोग। आलम यह है कि गांवों की नयी पीढ़ी यह भी नहीं जानती कि रामलीला किस बला की नाम है।

रामलीला कलाकारों का कहना है कि अब रामलीला के कद्रदानों में भी कमी आयी है। पहले जहां गुलाम भारत में अंग्रेज भी दशहरा के दिनों में रामलीला के प्रसंगों को घंटों बैठकर देखा करते थे और इतना ही नहीं वह कलाकारों को प्रोत्साहित करने के लिए इनामों से भी नवाजते थे लेकिन अब तो भोंड़े प्रदर्शन करने पर ही कलाकारों पर पैसों की बौछार की जाती है।


     कलाकार बताते हैं कि पहले केवल दशहरा ही नहीं बल्कि अन्य तीज-त्योहारों पर भी गांवों में रामलीला मंडलियों को प्रस्तुति के लिए बुलाया जाता था लेकिन अब ऐसी स्थिति नहीं रह गयी है। इस स्थिति में रामलीला कलाकार इस कला से विमुख होकर अन्य रोजगार अथवा धंधे की ओर उन्मुख हो चले हैं। यही कारण है कि अब देशभर में चंद रामलीला कंपनियां ही शेष बची हैं, जिनके द्वारा जैसे-तैसे रामलीला की परंपरा को आगे बढ़ाया जा रहा है।

रामलीला की गहरी समझ रखने वाले गांव के बुजुर्गों ने बताया कि अब तो दशहरा में रामलीला की जगह पर वीडियो पर रामानंद सागर के धारावाहिक रामायण को दिखाये जाने का चलन बढ़ा है। उन्होंने कहा कि गांव में रामलीला का मंचन नहीं होने की मजबूरी में वे रामायण धारावाहिक ही देखकर संतोष कर लेते हैं लेकिन इससे उन्हें पूर्ण संतोष नहीं हो पाता है।

विशेषज्ञों की मानें तो गांव में हो रही शहरों की नकल, आधुनिकता की नित्यदिन पड़ रही छाप, उग्रवादियों की बढ़ती पैठ एवं सामाजिक संरचना में आ रहे बदलावों के बीच ग्रामीण संस्कृति की पहचान रामलीला का चलन अब लुप्त होता जा रहा है। वहीं, सरकार का कला एवं संस्कृति मंत्रालय भी रामलीला के आयोजन और इसके कलाकारों को प्रोत्साहन के प्रति बिल्कुल उदासीन है। ऐसे में यदि समय रहते इस कला के संरक्षण पर ध्यान नहीं दिया गया तो रामलीला भी गुजरे जमाने की बात हो जायेगी।

सं सूरज

वार्ता

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