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राष्ट्रधर्म को सर्वोपरि मानते थे बंकिम दा

राष्ट्रधर्म को सर्वोपरि मानते थे बंकिम दा

लखनऊ 25 जून (वार्ता) अपनी सशक्त रचनाओं के जरिये देश में आजादी की लौ को हवा देने वाले बंकिमचंद्र चटर्जी राष्ट्रधर्म को सर्वोपरि मानते थे। बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय का जन्म 26 जून, 1838 ई. को बंगाल के 24 परगना ज़िले के कांठल पाड़ा नामक गाँव में एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। उनकी शिक्षा बंगला के साथ-साथ अंग्रेज़ी व संस्कृत में भी हुई थी। आजीविका के लिए उन्होंने सरकारी नौकरी की मगर राष्ट्रीयता और स्वभाषा प्रेम उनमें कूट-कूट कर भरा हुआ था। युवावस्था में उन्होंने अपने एक मित्र का अंग्रेज़ी में लिखा हुआ पत्र बिना पढ़े ही इस टिप्पणी के साथ लौटा दिया था कि, 'अंग्रेज़ी न तो तुम्हारी मातृभाषा है और न ही मेरी'। सरकारी सेवा में रहते हुए भी वे कभी अंग्रेज़ों से दबे नहीं। राष्ट्रीय दृष्टि से 'आनंदमठ' उनका सबसे प्रसिद्ध उपन्यास है। इसी में सर्वप्रथम 'वन्दे मातरम्' गीत प्रकाशित हुआ था। ऐतिहासिक और सामाजिक तानेबाने से बुने हुए इस उपन्यास ने देश में राष्ट्रीयता की भावना जागृत करने में बहुत योगदान दिया। ‘वन्दे मातरम्’ मंत्र ने देश के स्वतंत्रता संग्राम को नई चेतना से भर दिया। उनकी मृत्यु के दो साल बाद वन्देमातरम् गीत को सबसे पहले 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गाया गया था। 


          इससे पहले बंकिम ने साहित्य के क्षेत्र में कुछ कविताएँ लिखकर प्रवेश किया। उस समय बंगला में गद्य या उपन्यास कहानी की रचनाएँ कम लिखी जाती थीं। मात्र 27 वर्ष की उम्र में उन्होंने 'दुर्गेश नंदिनी' नाम का उपन्यास लिखा। इस ऐतिहासिक उपन्यास से ही साहित्य में उनकी धाक जम गई। फिर उन्होंने 'बंग दर्शन' नामक साहित्यिक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। रबीन्द्रनाथ ठाकुर 'बंग दर्शन' में लिखकर ही साहित्य के क्षेत्र में आए। उनके द्वारा रचित उपन्यासों में ‘आनंदमठ’, ‘कपालकुंडला’, ‘मृणालिनी’, ‘राजसिंह’, ‘विषवृक्ष’, ‘कृष्णकांत का वसीयतनामा’, ‘सीताराम’, ‘राधारानी’, ‘रजनी’ और‘इंदिरा’ प्रमुख हैं। इन सभी उपन्यासों की विशेषता यह है कि इनके पात्र ऐतिहासिक या तत्कालीन समाज से लिए गए हैं। ‘दुर्गेशनंदिनी’ उपन्यास में उन्होंने अकबर के समय के बंगाल का सटीक वर्णन किया गया है। वहीं, आनंदमठ को उनकी बेहतरीन कृति में गिना जाता है। इसी उपन्यास से राष्ट्रगान ‘वंदेमातरम’ को लिया गया है।


          श्री चटर्जी द्वारा रचित ‘राजसिंह’ उपन्यास में राजपूतों की संघर्षगाथा, औरंगजेब की मजहबपरस्ती और अन्यायपूर्ण शासन का जिक्र है। वहीं, ‘सीताराम’ उपन्यास में मुर्शिदाबाद के नवाबों की शासनकाल का जिक्र है। इस तरह से कह सकते हैं कि बंकिमचंद्र की समस्त रचनाओं में तत्कालीन समाज और घटनाओं का सजीवता से वर्णन किया गया है। ‘राजसिंह’ में उन्होने एक जगह लिखा था - हिंदू होने से अच्छा नहीं होता। मुसलमान होने से खराब नहीं होता अथवा हिंदू होने से बुरा नहीं होता या मुसलमान होने पर ही अच्छा नहीं होता। अच्छा-बुरा दोनों में बराबर ही हैं। दूसरे गुणों के साथ जो धार्मिक है - हिंदू हो या मुसलमान - निकृष्ट है। उनके इस कथन पर अगर गौर किया जाए तो वे मूलत: देशभक्त थे। उनकी रचनाओं में देशभक्ति कूट-कूट कर भरी थी। ‘आनंदमठ’ में 1857 से पहले के ‘संन्यासी विद्रोह’ का विस्तार से वर्णन किया गया है। गौरतलब है कि ‘संन्यासी विद्रोह’ 1772 से प्रारंभ होकर लगभग 20 सालों तक चला था। ‘आनंदमठ’ का धारावाहिक के तौर पर पहला प्रकाशन ‘बंग दर्शन’ पत्रिका में 1880 से लेकर 1882 के बीच हुआ था। ‘कपालकुंडला’ उपन्यास की पृष्ठभूमि भी अकबर के समय के बंगाल पर आधारित है, तो ‘मृणालिनी’ मुगलों के आक्रमण और अत्यचारों की कहानी है।


 

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