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लोकरुचि


शौर्य गाथायें सुनाने वाली कठपुतली लड़ रही है वजूद की जंग

शौर्य गाथायें सुनाने वाली कठपुतली लड़ रही है वजूद की जंग

प्रयागराज, 12 दिसम्बर (वार्ता) कभी शौर्य गाथा, मनोरंजन, शिक्षाप्रद संदेश और सरकारी योजनाओं के प्रचार-प्रसार का सशक्त माध्यम रही कठपुतली कला सूचना प्रौद्योगिकी के बढ़ते वर्चस्व के आगे दम तोड़ती नजर आ रही है।


      टेलीविजन, कम्प्यूटर, इंटरनेट एवं मोबाइल फोन की मायावी दुनिया में अपनी अंगुलियों के हुनर से रंगबिरंगी कठपुतलियों को नचाने वाले कलाकार अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। कभी राजा से लेकर रंक तक कठपुतली हर एक के मनोरजंन का मुख्य साधन हुआ करती थी। सरकारें में अपनी योजनाओं के प्रचार प्रसार के लिये इस कला के हुनरमंदों का सहारा लेती थी जबकि बच्चे तो कठपुतली वाले के गली में आते ही चहक उठते थे। मुख्य पात्र बत्तोरानी और मियां गुमसुम बीते जमाने की बात बनते जा रहे हैं मगर समय ने करवट बदली और कठपुतली कलाकार रोजी-रोटी को मोहताज हो अन्य व्यवसायों में लिप्त होने को मजबूर हो गये।

     कुछ दशक पूर्व तक जब मोबाइल, इंटरनेट का चलन नहीं था, कठपुतलियां नचाने वाले कलाकार एक गांव से दूसरे गांव लोगों का मनोरंजन करने भ्रमण करते थे। इससे उन्हे अच्छी आमदनी होती थी। घर बैठे काम मिल जाता था। स्कूल, कालेज, सरकारी दफ्तरों तथा निजी कंपनी वाले प्रचार-प्रसार करवाने के लिए खुद आकर घर से बुकिंग कराते थे।

     उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र (एनसीजेडसीसी) के निदेशक इन्द्रजीत ग्रोवर ने ‘‘यूनीवार्ता” से बातचीत में बताया कि बेजान कागज और काठ की बनी कठपुतली कलाकार का हाथ और साथ मिलते ही जीवंत हो जाती है। कलाकार की पूरी ऊर्जा उन बेजान पुतलों मेें हस्तांतरित हो जाती है।

    उन्होंने बताया कि इसमें दो राय नहीं कि सैकड़ो साल पुरानी कला को टीवी, इंटरनेट, कम्प्यूटर, मोबाइल और आधुनिक तकनीकी सुविधाओं वाले थियेटर ने पीछे छोड़ दिया और कलाकारों के सामने आर्थिक समस्या पैदा हो गयी है। उन्होंने कहा कि कोई भी कला समाप्त नहीं होती। इतनी समृद्ध कला तो कभी खत्म नहीं हो सकती जिसमें हर प्रकार का संदेश पहुंचाने की जबरदस्त क्षमता है।

श्री ग्रोवर ने कहा कि सरकार लुप्त हो रही लोक कलाओं को सजीव करने के लिए ग्रांट भी जारी कर रही है। उसका प्रयास है कि भारत की समृद्ध कला को किसी भी रूप में जीवंत रखा जाए। उन्होंने स्वीकार किया कि इवेंट कराने वाले लोग इनका शोषण करते हैं। देय राशि कुछ होती है और भुगतान कुछ और किया जाता है, जो  निश्चय कलाकारों के साथ अन्याय है। इस पर निगरानी की आवश्यकता है।

    उन्होने बताया कि तकनीक ने इस कला को पहले से अधिक समृद्ध किया है। अब यह कला सड़कों, गली-कूचों से निकल कर फ्लड़ लाइड्स की चकाचौंध में अपनी चमक बिखेर रही है। पहले जहां गांवों में लालटेन की रोशनी में इसका खेल दिखाया जाता था आज वहां बड़े बड़े थियेटरों में परफारमेंस की तर्ज पर लाइट और प्रोजेक्टर का इस्तेमाल किया जा रहा है।

     नगर के व्यस्ततम क्षेत्र सिविल लाइंस में भ्रमण कर रहे राजस्थान के जयपुर में कठपुतली नगर के कलाकार जोगेश्वर प्रसाद ने बताया कि बच्चों में शिक्षाप्रद संदेश और सरकारी योजनाओं के प्रचार-प्रसार समेत मनोरंजन के प्रमुख साधन थे। कठपुतली के नृत्य में मुख्य पात्र मियां गुमसुम और बत्तोरानी का होता था। इन कहानियों में प्रेम और शौर्य की गाथाएं प्रमुख रूप से प्रस्तुत की जाती हैं।

     उन्होंने बताया कि अब न/न वह दर्शक है और कलाकार। हतोत्साहित होते कलाकारों को जीविका चलाने के लिए अन्यत्र कुछ कार्य करना पड़ रहा है। वह दिन लद गये जब कलाकार कठपुलतियो के माध्यम से नुक्कड़ नाटक और मेले में प्रदर्शन कर लोगों का मनोरंजन करते थे। इनका तमाशा देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते थे। कलाकार कार्यक्रमों के दौरान इन बेजुबानों की मदद से बहुत कुछ कह जाते थे, लेकिन अब पुश्तैनी धंधा बचाने के लिए इधर उधर भटकना पड़ रहा है।

 श्री प्रसाद ने बताया कि कभी कलाकारों ने अपनी कला के बल पर देश-विदेश में नाम कमाया, अपनी कला को भी उन्होंने नई ऊंचाई दी, पर आज उनके परिवार बुनियादी जरूरतों के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं। जब इन परिवारों के लिए रोटी का ही ढंग से जुगाड़ नहीं हो पा रहा, तो बच्चों की पढ़ाई-लिखाई कहां से हो।

     उन्होने बताया कि कुछ लोग अब मेला या सड़क किनारे दिल्ली, मुम्बई और अन्य शहरों में सड़क किनारे घास-फूस के हाथी, घोड़ा आदि बेचकर परिवार का पालन पोषण कर रहे हैं। कलाकारों का अब वह मान-सम्मान भी नहीं होता। तालियों की गड़गड़ाहट से कभी जिनका आदर और सत्कार होता था, अपने ही देश में अब बेगाना हो गये हैं।

     श्री प्रसाद ने बताया कि वह दिल्ली के मंगोलपुरी क्षेत्र में काफी समय तक रह कर लोगों का मनोरंजन कर चुके हैं। वह एक बार मण्डी हाउस के पास कठपुतली नाच की खबर सुनकर पहुंचे थे। लेकिन वहां तो बड़े आडिटोरियम में किसी विदेशी द्वारा कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया था। बाहर निकलने वाले लोगों के मुंह से वाहवाही सुनकर प्रसन्नता के साथ लोगों की सोच पर खेद भी हुआ, अपने ही देश में कठपुतली कलाकार बेगाना हुए हैं।

     हकीकत यह है कि उंगलियों का हुनर दिखाने वाले कठपुतली कलाकारों को अब उंगलियों पर ही गिना जा सकता है। कभी कठपुतली की कला से देश-विदेश में चर्चा बटोरने वाले कलाकार आज दो वक्त की रोटी के मोहताज हैं।

श्री प्रसाद ने बताया कि एक विदेशी कलाकार के प्रस्तुति की वाहवाही हो रही थी लेकिन खुद के देश में वही कलाकार उचित सम्मान और व्यवहार को तरसते हैं। उनका कहना था कि बड़े शहरों की तुलना में में छाेटे शहरों और कस्बो में दिनभर मेहनत कर कुछ तो मिल ही जाता है। उन्होंने दु:ख व्यक्त करते हुए अपने ही देश में बेगानों जैसा व्यवहार बड़ा कष्ट देता है।

    एक अन्य कठपुतली कलाकार हीरेन साखला ने बताया कि कठपुतली कला प्राय: सभी जगी होती है लेकिन राजस्थान की कला निराली है। यह विभिन्न राज्यों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। उन्होंने बताया कि उड़ीसा में ‘साखी कुंदेई, असम में पुतला नाच, महाराष्ट्र में मालासूत्री बहुली, कर्नाटका में गोम्बेयेट्टा, तमिलनाडु की बोम्मलट्टम काफी कौशल वाली कला है जिसमें बड़ी बड़ी कठपुतलियां धागा और डंडों की सहायता से नचाई जाती है।

    उन्होंने बताया कि कठपुतली नृत्यु मुख्य रूप से चार प्रकार के होते हैं। दस्ताने की सहायता से नचाने वाली कठपुतली, छड़ की मदद से, धागे की सहायता और छाया कठपुतली। धागे वाली कठपुतलियों की कला काफी प्रचलित है। छड़ की मदद से कठपुतलियों को नचाना कठिन कार्य है।

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