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ग्रामीण संस्कृति की ध्वजवाहक बैलगाड़ी लुप्त होने की कगार पर

ग्रामीण संस्कृति की ध्वजवाहक बैलगाड़ी लुप्त होने की कगार पर

प्रयागराज, 11 अक्टूबर (वार्ता) देश में ग्रामीण संस्कृति की ध्वजवाहक पर्यावरण मित्र बैलगाड़ी यांत्रिकीकरण से मानव के जेहन और जीव से धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है।


   बैलगाड़ी की संस्कृति को निगलने पर उतारू मशीनीकरण की देन ट्रैक्टर एवं टैम्पो ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था के ताने-बाने को तार-तार कर डाला है। कल तक गांवों के कच्चे, ऊबड़ खाबड़ और टेढ़े रास्ते पर बैलों के कंधों के सहारे चलने वाली बैलगाड़ी की जगह अब ट्रैक्टर ने ले ली है।

     आज भले ही मानव ने बहुत विकास किया है, और बेहतरीन तथा तेज चाल वाली गाड़ियाँ इजाद की हैं, लेकिन बैलगाड़ी के महत्त्व को नहीं नकारा जा सकता। बैलगाड़ी विश्व का सबसे पुराना यातायात एवं सामान ढोने का साधन है। इसकी बनावट भी काफ़ी सरल होती है। स्थानीय कारीगर परम्परागत रूप से इसका निर्माण करते रहे हैं। देश में तो बैलगाड़ियाँ प्राचीन समय से ही प्रयोग में आने लगी थीं।  बैलगाड़ी ने हिन्दी फ़िल्मों में भी अपनी विशिष्ट जगह बनाई और कई यादगार गीतों का हिस्सा बनी।

      बैलगाडी जहां पर्यावरण मुक्त परिवहन का साधन था वहीं मशीनों,ट्रैक्टर, बस और टैम्पों आदि यातायात के साधनों से उर्त्सजन होने वाला जहरीला धुआं मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। ग्रामीण संस्कृति एवं बैलगाड़ी से तालमेल रखने वाली प्रचलित कहावत “लीके लीक गाड़ी चले, लीके चले कपूत, लीक छाड तीन चले, शायर, सिंह और

सपूत” के बोल शायद ही किसी ग्रामीण किसान को याद हो। इसकी डिजाइन बहुत सरल परम्परागत रूप से इसे स्थानीय संसाधनों से स्थानीय कारीगर बनाते रहें हैं लेकिन अब भी यह यदा-कदा कहीं दिखलायी पड़ जाते हैं।

प्रयागराज के फूलपुर क्षेत्र के इस्माइलगंज, पूरे महारत और बरई टोला मुहल्ले में 15 से 20 परिवार लोहारी का काम करते हैं। उनका कहना है कि बैलगाड़ी पर लोहे का शाम ढ़ालने और उसका पहिया बनाना गुजरे जमाने की बात लगती है। गांवों में बैलगाड़ी की जगह ट्रैक्टरों ने ले लिया है। इससे हम लोगों का कोई मतलब नहीं है। पहले हर गांव में किसानों के पास अपनी बैलगाड़ी होती थी। हमें बराबर काम मिलता रहता था और रोजी-रोटी भी आसानी से चलती थी।

       बरई टोला निवासी भूखन और भोला दोनो भाइयों का कहना है कि कल तक गांवों के कच्चे, ऊबड़ खाबड़ और टेढ़े रास्ते पर बैलों के कंधों के सहारे चलने वाली बैलगाड़ी की महत्ता को ट्रैक्टर की तुलना में कमतर नहीं आंका जाना चाहिए। प्राचीन समय में आस-पास आवागमन का यही एक महत्वपूर्ण साधन था।

        भोला ने बताया कि बैलगाड़ी के पहिया पर शाम ढ़ालने के लिए भट्टी हमेशा दहकती थी और हथैड़े की चोट लगातार पड़ती रहती थी। कभी पहिया मरम्मत, जुआ कभी हल तो कभी अन्य काम से फुरसत नहीं मिलती थी। बैलगाड़ी का

पहिया तैयार करने में कई हप्ते लग जाते थे। लेकिन अब यह अतीत की बात हो गयी।

        उन्होने बताया कि मशीनीकरण ने बैलगाड़ी बनाने वाले कारगरों की रोजी भी छीन ली। दिन प्रति दिन घटते पेड़ो के कारण मंहगी होती लकड़ी ने भी कारीगरों को बैलगाड़ी बनाने से मुंह मोड़ने को विवश कर दिया। काष्ठ कारीगर बैलगाड़ी निर्माण की कला पर ध्यान देना छोड़कर अन्य प्रकार की लुहारी के कार्य में रत हो गये।

सबसे अगाड़ी हमार बैलगाड़ी कह हांकने वाले प्रयागराज के फूलपुर निवासी वृद्ध ग्रामीण किसान धंसी आंखें और झुर्रियों वाले चेहरा लिये बाबू महतो दु:ख भरे शब्दों में कहते हैं “ ट्रैक्टर को गांव के लीक पर दौड़ते और खेत में चलते देख के ऐसा लगता है कि हमार धरती माई का करेजा चीरत जाइत है। एकरा के देख के हमार करेजा फटत है बाबू।” यह कराह मात्र एक किसान की ही जुबानी नहीं बल्कि मशीनीकरण की मार से पीड़ा सह रहे हजारों किसानों के आक्रोश की उपज है।

       उन्होने बताया कि प्राचीनकाल से लेकर हाल के वर्षों तक गांव से शहरों की मंडियों और हाट, बाजारों में अनाज पहुंचाने, गांव के ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों पर सवारियों ढ़ाेने, विवाह में बारात ले जाने, गृहस्थी संबंधी सामानों की ढुलाई करने और खेतेों के बेतरतीब रास्तों पर चलने वाली ग्रामीण संस्कृति में रची बसी बैलगाड़ी का कोई विकल्प नहीं था।

       श्री महतो का कहना है कि ग्रामीण संस्कृति से जुड़ी बैलगाड़ी पुरखों की सफलता और वैज्ञानिक सोच की ओर इंगित करती है। बगैर इंधन एवं पुर्जे के चलने वाली बैलगाड़ी गांव के लिए सर्वोत्तम एवं सुलभ परिवहन व्यवस्था थी।

        इसके लकड़ी के बने पहिए को घिसाव से बचाने के लिए लोहे का ढ़ाल चढ़ा होता था जो वर्षों तक सुरक्षित रखता था। पहिये और धुरी के बीच की रगड को कम करने के लिए पटसन एवं कपडे को लपेट कर उनके ऊपर से पहिया चढ़ाया जाता था। सरलता से चलने के लिए इसकी धुरी में नियमित अरंड़ी का तेल डाला जाता था जिससे बैलों को इसे खींचने में आसानी होती थी।

        वर्तमान स्थिति में किसी भी राष्ट्रीय कृत बैंक, ग्रामीण बैंक अथवा निजी वित्तीय संस्थानों के पास दुधारू पशु को छोड़कर बैलों एवं बैलगाडी के लिए ऋण स्वरूप वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने की कोई योजना नहीं है। यांत्रिक वाहनों के लिए यें संस्थान धडल्ले से वित्तीय संसाधन ऋण उपलब्ध करवाते हैं। बैंक भी ट्रैक्टरों की खरीद के लिए अनुदान देती है, लेकिन असहाय गरीब किसान के लिए सस्ते एवं सुलभ वाहन बैलगाड़ी के लिए न तो कोई अनुदान और न ही वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने की कोशिश कर रही है।

       उन्होने बताया कि मशीनीकरण के इस युग में बड़े जोत वाले किसानों ने ट्रैक्टरों को अंगीकार कर लिया, वहीं सीमांत एवं लघु किसान इस व्यवस्था के आगे नहीं टिकने के कारण नतमस्तक हो हल-बैल को त्यागकर भाड़े पर मशीनी वाहन से खेती कराने पर मजबूर हो गये। ट्रैक्टर के पहियों तले कुचलकर धरती भी आहत हुई। इसके लंबे फार जमीन में गहराई तक घुस कर मिट्टी को भुरभुरा बनाये रखने वाले केंचुए को भी नष्ट करते हैं।

       बैलगाड़ी की ग्रामीण व्यवस्था को निगलने में सहायक बनी है मंहगायी की आयातित व्यवस्था। पशुधन की कमी से उत्पन्न स्थिति का भरपूर लाभ मशीनी व्यवस्था (ट्रैक्टर) ने उठाया। इस व्यवस्था ने ग्रामीण लीकों को रौंदने के बाद खेतों को रौंदने का काम शुरू कर दिया। मशीनीकरण की इस दौर ने हजारों हाथों से रोजगार छीन लिये। बेरोजगार होने से ग्रामीण कृषक वर्ग ने मजदूर की शक्ल अख्तियार कर नगरों की ओर पलायन करना शुरू कर दिया जिससे खेती उत्तरोत्तर घाटे का सौदा साबित होने लगा।

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